पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९९

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। रामचरित मानस ११२० दो०-पुरुप त्यागि सक नारिहि, जो बिरक्त मतिधीर । नतु कामी विषयाबस, बिमुख जो पद रघुधीर ॥ वही पुरुष स्त्री को त्याग सकेगा जो वैराग्यवान और धीर बुद्धि होगा, न कि कामी, विषयाधीन और जो रघुनाथजी के चरणों से विपरीत है। अबला जो स्वाभाविक मूर्ख जाति और निर्बल है, वह प्रबल प्रतापी पुरुषों को सहज ही काबू में किये है । अपूर्ण हेतु से कार्य पूर्ण होना 'द्वितीय विभावना अलंकार है। सभा की प्रति में 'नतु कामी जो विषय बस' पाठ है। सो सो मुलि ज्ञान निधान, भृगनयनी बिधुमुख निरखि । बिकल होहिँ हरिजान, नारि बिस्व माया प्रगट ॥११॥ वे ज्ञाननिधान मुनि मृगनैनी चन्द्राननी नायिका को देख कर विकल हो जाते हैं, हे हरियान ! संसार में स्त्री प्रत्यक्ष माया है ॥ ११५ ॥ दौ-इहाँ न पच्छपात कछु राखौँ । बेद पुरान सन्त मत भाखौँ । माह न नारि नारि के रूपा । पनगारि यह रीति अनूपा ॥१॥ यहाँ कुछ पक्षपात न रख कर वेद पुराण और सन्तों का सिद्धान्त कहता हूँ । हे गरुड़जी! यह अनुपम रीति है कि सभी (काम भाव से) स्त्री के रूप पर मोहित नहीं होती ॥१॥ यहाँ लोग शक्षा करते हैं कि-रङ्गभूमि जब सिय पशु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी' इस चौपाई के विपरीत कथन है। परन्तु ऐसा नहीं है, रङ्गभूमि में जगन्माता की छवि पर एत्री-पुरुषों का मोहित होना कहा गया है किन्तु काम भाव से नहीं। रूप लावण्य पर प्रसन्न होकर शुद्धभाव से मुग्ध होना दूसरी बात है। यहाँ का तात्पर्य यह है कि कामभाव से किसी सुन्दरी पर कोई स्त्री कदापि मोहित नहीं होती। शङ्का निर्मूल है । माया भगति सुनहु तुम्ह दोज । नारि-बर्ग जानइ सब कोऊ ॥ पुन्धि रघुवीरहि अगति पियारी । माया खलु नर्तकी बेचारी ॥२॥ हे पक्षिराज ! माप सुनिये, माया और भक्ति दोनों स्त्री-वर्ग हैं, इसको सब कोई जानते हैं। फिर अकि रघुनाथजी को प्यारी है और माया बेचारी निश्चय ही नाचनेवाली नटिन (वेश्या) है ॥२॥ भक्ति और माया दोनों रधुनाथजी की दासी हैं। भक्ति बगल में बैठनेवाली पटरानी प्यारी स्त्री है और माया नाचनेवाली वेश्या अर्थात् दूर से तमाशा दिखानेवाली है । यह व्यशार्थ वाच्यार्थ के बराबर तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है। . भगतिहि सानुकूल रघुराया । तातै तेहि डरपति अति माया । रामनगति निरुपम निरुपाधी । बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥३॥ भति पर रघुनाथजी प्रसन्न रहते हैं, इससे माया उसको बहुत डरती है । अनुपम, उप- द्रव रहित, अखण्ड रामभकि जिसके हृदय में सदा बसती है ॥३॥