पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२००

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११२१ तेहि बिलोकि माया सकुचाई । करि न सका कछु निज प्रभुताई ॥ अस बिचारि जे मुनि विज्ञानी । जाचाहिँ भगति सकल सुख खानी ॥४॥ उस प्राणी को देख कर माया सकुचाती है, कुछ अपनी प्रभुता नहीं कर सकती। ऐसा समझ कर लो विज्ञानी मुनि है, सम्पूर्ण सुखों की खानि भक्ति को याचते हैं l दो-यह रहस्य रघुनाथ कर, बेगि न जानइ कोइ । जो जानइ रघुपति कृपा, सपनेहुँ मोह न होइ ॥ यह रघुनाथजी का छिपा हुआ इतिहास है. इसको जल्दी कोई नहीं जानता। जो रघुनाथजी के अनुग्रह से जान लेता है, उसको सपने में भी अशान नहीं होता। औरउ ज्ञान भगति कर, भेद सुनहु सुप्रबीन । जो सुनि होइ राम-पद. प्रीति सदा अबिछोन ॥१६॥ हे सुन्दा प्रवीण गरुड़जी ! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिये, जो मन कर राम. चन्द्रजी के चरणों में लगातार एकरस प्रीति होगी ॥११६॥ चौ०-सुनहुनाथ यह अकथ कहानी । समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥ ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥१॥ हे नाथ ! यह अकथ कहानी सुनिये, समझते बनती है पर बखानी नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश, नाश रहित, चैतन्य, निर्मल और स्वाभाविक सुख की राशि है ॥१॥ सेो माया बस भयउ गोसाँई । बँधेठ कीर मर्कट की नाई । जड़ चेतनहिँ ग्रन्थि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥२॥ हे स्वामिन् ! वह माया के वश में होकर सुग्गा और बन्दर की तरह बँधा है। जड़ (माया) और चेतन (जीव) की गाँठ पड़ गई यद्यपि यह झूठी है तथापि छूटने में कठिनता है ॥२॥ शुक नलिका द्वारा और घन्दर स्वल्र मुख के पात्र द्वारा भोजन के लालच से आप ही आप फंस जाते हैं, उन्हें व्याधा पकड़ लेता है। यदि वे छोड़ कर भाग जाँय तो पाड़े नहीं जा सकते, परन्तु भ्रम वश ऐसा नहीं करते तय ते जीव मयड संसारी। छूट न ग्रन्थि न होइ सुखारी ॥ खुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥३॥ (जब से माया और जीव की गाँठ पड़ी) तव से जीव संसारी हुश्रा, न गाँठ छूटती है और न यह मुखी होता है। पुराणों में बहुत से उपाय कहे हैं, पर वह छूटती नहीं अधि- काधिक उलझती जाती है ॥३॥ हृदय तम माह बिसेखी । ग्रन्थिं छुटि किमि परइ न देखी ॥ अस सञ्जोग ईस जब करई । नबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥४॥ जीप के हदय में विशेष प्रज्ञानान्धकार है, जिससे दिखाई नहीं पड़ता फिर गोठ कैसे घट सकती है। जब ईश्वर ऐसा संयोग करे तब भी वह कदाचित सुलझ जाय ॥४॥ जीव १४१