पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०१

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रामचरित मानस । सात्विक खाद्या धेनु सुहाई । जो हरिकृपा हृदय बस आई । जप तप नत जम नियम अपारा । जे खुति कह सुभ-धरम अचारा ॥३॥ सतोगुणी श्रद्धा रूपी सुन्दर गैया जो भगवान की कृपा से आकर हृदय में निवास करे और जप, तप, बत, संयम, नियम श्रादि जिनको वेद शुभ-धर्म और कल्याणकर नाचरण कहते हैं ॥५॥ सात्विकी श्रद्धा और दुधार गैया का घृत दीपक जलाने के लिये प्रस्तुत करने में खाज्ञोपाल रूपक कविजी ने बाँधा है। सभा की प्रति में 'सात्विक स्त्रद्धा धेनु लवाई। पाठ है। तुरन्त की व्याई हुई गाय को लवाई कहते हैं, लधः प्रसूता गौ का घी अच्छा नहीं होता और काम निकालता है। गुटका में और पाँडेजी की प्रति में 'सुहाई। पाठ हैं। तेइ तुम हरित पर जब गाई। माव बच्छ-सिसु पाई पेन्हाई ॥ नोई निवृत्ति पात्र शिस्वाला । निर्मल मन' अहीर निज दासा ॥६॥ उम हरे हरे तृणों को जब गाय चरे, तब भाव (प्रेम) रूपी बालकबछड़े को पा कर पेन्हा- ती है। निवृति (लंसारी झंझटो से अलग रहने की चेष्टा) नोवना (दूध दुहते समय गाय के पाँवों में बांधी जाने वाली रस्सी) है, विश्वास बरतन है और निर्मल मन रूपी अहीर गैया का खास लेवक है ॥६॥ परम धरममय पथ दुहि भाई । अवटइ अनल अकाम बनाई ॥ तोष मरुत तब छमा जुड़ावै । धृति सम जावन देइ जमावै ॥७॥ हे भाई! भत्युत्तम धर्म रूपी दूध को दुह कर और निष्काम रूपी अग्नि बना कर प्रौटावे। तब सन्तोष और क्षमा रूपी पवन से ठंडा करके सौम्यता रूपी जावन दे कर जमावे ॥७॥ दूध को पका कर शीतल करके उसमें थोड़ा दही जमने के लिये डाल दिया जाता है, उस दही को जावन कहते हैं। मुदिता मथइ बिचार सथानी । दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥ तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥८॥ प्रलभता रूपी स्त्री विचार रूपी मथाती से मथे, इन्द्रियदमन श्राधार (जिसमें मथानी का ऊपरी छोर लगा रहता) है, सत्य और सुन्दर वाणी रूपी रस्सी लगावे, तब मथ कर निर्मल पवित्र अच्छा कल्याणकारी वैराग्य रूपी मक्खन निकाल ले | सभा की प्रति में 'विमल विराग सुपरम पुनीता' पाठ है । दो-जोग अगिन करि प्रगट तब, करम सुभासुभ लाइ । बुद्धि सिरावइ ज्ञान घृत, ममता मल जरि जाइ । तव योग रूपी अग्नि प्रकट कर के शुभाशुभ कर्म कपी धन लगावे । ममता रूपी मैस (माठा) जल जावे, उस ज्ञान वृत को बुद्धि रूपिणी स्त्री शीतल करे।