पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०५

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११२६ रामचिरस-मानस। दो-सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि । ग मजहु राम-पद पङ्कज, अस सिद्धान्त बिचारि ॥ हे गरुड़जी ! सेवक स्वामी भावके बिना संसार-सागर से पार नहीं मिलता। ऐसा सिद्धान्त विचार कर रामचन्द्रजी के चरण-कमलो को भजिये। जो चेतन कह जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य । अस समर्थ रघुनायकहि, भजहि जीव ते धन्य ॥११॥ जो चेतन को जब्त करते और जड़ को चैतन्य करते हैं, ऐसे समर्थ रघुनाथजी को जो जीव भाते हैं वे धन्य हैं ॥११॥ चौ०-कहे ज्ञान सिद्धान्त बुझाई । सुनहु भगतिमनि कै प्रभुताई । शालनगति चिन्तामनि सुन्दर । बसइ गरुड़ जाके उर अन्तर १॥ हे गरुड़जी ! ज्ञान का सिद्धान्त मैं ने समझा कर कहा, अब भक्ति रूपी मणि की महिमा को सुनिये । रामभक्ति रूपी सुन्दर चिन्तामणि जिसके हवयं में निवास करती है ॥१॥ चिन्तामणि-एक कल्पित रत्न जिलके विषय में प्रसिद्ध है कि उससे जो कामना की जाय वह पूर्ण कर देता है। परम प्रकास रूप दिन राती । नहिँ कछु चहिय दिया घृत बाती ॥ मोह दरिद्र निकट नहिँ आवा । लोभ बात नहिँ ताहि बुझावा ॥२॥ दिन रात अत्युत्तम प्रकाश रूप है, वहाँ दीपक, घी और बत्ती कुछ न चाहिये । अज्ञान रूपी दरिद्र पास नहीं आता और लोम रूपी बतास उसको नहीं बुझा सकता ॥२॥ प्रबल अविद्या तम मिटि जाई । हारहिँ सकल सलम समुदाई ॥ खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसई भगति जाके उर माहीं ॥३॥ अविद्या माया का घोर अन्धकार मिट जाता है.और सम्पूर्ण विकार रूपी पोखियों को झुण्ड हार जाता है । काम आदि दुष्ट उसके समीप में नहीं जाते जिसके हृदय में रामभक्ति बलती है ॥३॥ सभा की प्रति में 'अचल अविद्या तम मिटि जाई पाठ है। गरल सुधा सम अरि हित होई । तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई। व्यापहि भानसरोग न मारा । जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥ जिसके प्रभाव से विष अमृत समान और शत्रु, हितकारी हो जाते हैं, उस मणि के विना कोई चैन नहीं पाता। भक्ति के प्रताप से भारी मानसरोग नहीं व्यापते जिनके अधीन सब जीव दुखी हैं. neu गरल को और शत्रु को मित्र के समान होना, इस विरोधी वर्णन में विरोधाभास अलंकार' है। . सुधा