पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । मानसरोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्वज्ञ कृषी अधिकाई ॥ तांत सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥४॥ मानसरोग समझा कर कहिये, आप सब के जाननेवाले और मुझ पर बढ़ी छपा रखते है। कागभुशुण्डजी कहते हैं- हे तात ! अत्यन्त प्रीति और श्रादर के साथ सुनिये, यह नीति मैं संक्षेप में कहता हूँ ॥ गुरुजी ने सात प्रश्न किये । (१) सब से दुर्लभ शरीर कौन है । (२) बड़ा दुःख क्या है ? (३) बड़ा सुख कौन है ? (1) सन्त और असन्तो का सहज स्वभाव क्या है ? (५) बड़ा पुण्य कौन है ? (६) भीषण पाप कौनसा है। (६) मानसरोग के लक्षण क्या है ? भुशुण्डीजी रसी क्रम से उत्तर दे चले। नर तन सम नहिं कवनिउँ देही । जीव घराचर जाधत जेही। नरक सर्ग अपवर्ग निसनी । ज्ञान बिराम भगति सुख देनी॥५॥ • मनुष्य-देह के समान कोई भी शरीर नहीं है जिसको जड़ चेतन जीव सब चाहते हैं। परक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है, शान, वैराग्य और भक्ति के सुख को देती है ॥५॥ सो तनु धरि हरि मजहिं नजे नर । होहिं बिषयरत मन्द मन्दतर ॥ काँच किरिच बदले ते लेहीं । कर लें डारि परसमनि देहीं ॥६॥ यह शरीर धारण करके जो मनुष्य भगवान का मजन नहीं करते और विषयों में प्रासक होते हैं घे नीच से भी अत्यन्त नीच हैं । पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं, उसके यदले में काँच का टुकड़ा लेते हैं ॥६॥ भक्ति और पारसमणि, विषय और काँच का टुकड़ा परस्पर उपमेप उपमान हैं। समा की प्रति में 'फाँच शिरिष बदले जिमि लेही पाठ है। यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है। नहिं दरिद्र सम दुख जग माही.। सन्त मिलन सम सुख कछु नाहीं ॥ पर उपकार बचन मन काया। सन्त सहज सुमाव खगराया ॥७॥ परिद के समान संसार में दुःख नहीं है और सन्त समागम के समान कुछ सुन महीं है। हे पक्षिराज ! सन्त सहज स्वभाव धन, मन और शरीर से पराये का उपकार करना है ॥७॥ चौपाई के पूर्वार्द्ध में दूसरे और तीसरे प्रश्न का उत्तर हुश्रा। उत्तराई से चौथे प्रश्न का उत्तर दे चले हैं। सन्त सहहिँ दुख परहित लागी । पर दुख हेतु असन्त अभागी ॥ भूरज तरु सम सन्त कृपाला । परहित नित सह बिपति विसाला॥4॥ सन्तं पराये की भलाई के लिये दुःख सहते हैं और प्रमाणे दुर्जन दूसरों को क्रश पहुंचाने के लिये कष्ट भोगते हैं। कपालु सन्तजन भोजपत्र के वृक्ष के समान है, जो पराये में कल्याण के लिए नित्य बहुत बड़ी विपत्ति सहते हैं |