पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१

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रामचरित-सालस। इस वर्णन में सतो का श्राश्चर्या स्थायीभाव है । राम-लक्ष्मण ज्ञानको पालन्धन विभाव हैं। अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवता, सिद्धादि के भिन्न भिन्न रूपों में दर्शन उद्दीपन विभाव है । हृदयकम्प, स्तम्भ, नेत्र बन्द करना अनुभाव है। मोह, जड़ता श्रादि सञ्चारी भावों से पुट होकर 'अद्भुत रस' हुना है। बहुरि बिलोकेउ नयन उधारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥ गिरीसा ॥४॥ पुनि पुनि नाइ राम-पद सीसा । चली तहाँ जहँ रहे फिर दक्ष की कन्या ने आँख खोल कर देखा, तो उन्हें वहाँ कुछ न देख पड़ा। चार वार रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवा कर जहाँ शिवजी थे वहाँ चलीं ॥४॥ दो०--गई समीप महेस तर, हँसि पूछी कुसलात । लीन्हि परीछा कवन विधि, कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥ जब वे शिवजी के पास गई, तब उन्होंने हस कर कुशल समाचार पूछा कि सब सच्ची चात कहो, तुमने किस तरह परीक्षा ली ? ॥ ५५ ॥ चौ-सती समुझि रघुबीर प्रसाज । अय-अस प्रभु सन कीन्ह दुराज । कछु न परीछा लीन्हि गोसाँई । कीन्ह प्रनाम तुम्हारिहि नाई ॥१॥ रघुनाथजी की महिमा को समझ कर सती ने भय के मारे स्वामी से छिपाच किया। उन्होंने कहा-हे स्वामिन ! मैं ने कुछ परीक्षा नहीं ली, आप ही की तरह प्रणाम किया ॥ ९ ॥ शिवजी को सन्देह हुआ कि इन्होंने अनुचित प्रकार से तो कोई परीक्षा नहीं ली, इससे उन्होंने कहा, सब सत्य कहो। पर सती ने भय से सत्य को छिपा कर सत्य बातें कह कर शङ्खा दूर करने की चेष्टा की, यह 'वैका पहुति अलंकार है। जो तुम्ह कहा सो मृपा न होई । मोरे मन प्रतीति अति साई ।। तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना । सती जो कीन्ह चरित सब जाना ॥२॥ जो आपने कहा वह झूठ न होगा, मेरे मन में उसका बड़ा विश्वास है । तब शिवजी ने ध्यान धर कर देखा, लती ने जो किया था वह सब करतूत जान गये ॥२॥ बहुरि राम-मायहि सिर नावा । प्रेरि सतिहि जेहि भूठ कहावा ! हरि-इच्छो भावी बलवाना । हृदय विचारत सम्नु सुजाना ॥३॥ फिर रामचन्द्रजी की माया को तिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके लती ले झूठ कह- लाया। मुजान शङ्करजी मन में विचारते हैं कि ईश्वर की इच्छा रूपी भावी जबर्दस्त है ॥३॥ सती कीन्ह सीता कर वेषा सिव-उर अयउ विपाद बिसेषा । जौँ अब करउँ सती सन प्रीती। मिद भगति-पथ होइ अनीती ॥४॥ सती ने सीताजी का रूप बनाया, शिवजी के मन में इसका बहुत ही खेद हुआ। यदि अब मैं सती ले प्रेम करता हूँ तो भक्ति का सत्ता मिट जायगा और नोति के विपरीत कार्य (दुराचार) होगा ॥४॥ ।