पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१०

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1 सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड ११३१ सब कै निन्दा जे जड़ करहीं । ते चमगादुर हाइ अवतरहीं ॥ , सुनहु तात अन्न सानसरोगा । जेहिं तें दुख पावहिं सब लोगा ॥१॥ जो मूर्ख सर की निन्दा करते हैं वे चमगादड़(मेदुरा) होकर जन्म लेते हैं। काग- भुशएजी कहते हैं-हे तात ! अब मानसरोग सनिये, जिससे सब लोग दुःख पाते हैं ॥१४॥ माह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तेहि त पुनि उपजहिँ बहु सूला ।। काम बात कफ लाम अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥१५॥ ससस्त व्याधियों की जड़ (आदिकारण) अशान है, फिर उससे बहुत सी पीड़ाये उत्पन्न होती है। काम रूपी वात, कफ रूपी अपार लोभ और क्रोध रूपी पिच (तीनो दोष) नित्य छाती जलाते हैं ॥१५॥ यहाँ से रोग समूह और मानसराग का साझापान रूपक वर्णन है। प्रीति कहिँ जो तीनिउँ भाई । उपजइ सनिपात दुखदाई ॥ विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सत्र सूल नाम को जाना ॥१६॥ हे भाई! जब ये तीनों प्रीति करते हैं, तब दुःखदाई सशिपात (त्रिदोष ज्वर) उत्पन्न होता है। नाना प्रकार दुर्गम (जो प्राप्त न हो सके) विषयों की प्रमिलाया वह सब तरह की पोडार्थ हैं, जिनका नाम कौन जान सकता है १ ॥१६॥ ममता दादु कंडु इरपाई । हरष बिषाद गरह बहुताई। पर सुख देखि जरनि साइ छई । कुष्ठ दुष्टता मन कुटिलई ॥१७॥ ममत्व वादु रूप है, ईया खाज है और हर्षशोक होना ग्रहों की अधिकता है। पराये के सुख को देख कर जलना वही क्षयरोग है, दुष्टता और मन का टेढ़ापन कोढ़ रोग है ॥१७॥ अहङ्कार अति दुखद डमरुआ। दम्भ कपट मद मान नहरुमा ॥ हसना उदरवृद्धि अति भारी । त्रिबिधि ईपना तरुन तिजारी ॥१८॥ अभिमान अत्यन्त दुखदाई गठिया रोग है दम्भ, पाखण्ड, मद और मान नहरुषा रोग है। तृष्णो बहुत बड़ी उदरद्धि (जलोदर आदि) रोग है, (तन, धन, जन) तीनों प्रकार की इच्छाएं तरुण अतरिया (तीसरेदिन आनेवाला) ज्वर है । ॥१८il नहरुबारेगि-यह प्रायः कमर के निचले भाग में होता है। पहले किसी स्थान पर सूजन होती है फिर छोटा सा घाव होता उसमें से सूत की तरह धीरे धीरे कोड़ा निकलता है, जो मालपा और राजपुताने में बहुत होता है। जुग बिधि ज्वर मत्सर आबका। कहँ लगि कहउँ कुरोग अनेका ॥१९॥ डेड दो हाथ लम्बा होता है। यदि यह टूट जाता है तो पाँव को काम कर देता है । यह रोग आह और अविचार (वाह तथा कम्प) दो प्रकार के ज्वर हैं, कहाँ तक कह अनेक प्रकार के कुरोग ॥१॥