पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१४

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जोगो सूर सुतापस ज्ञानो धर्म निरत पंडित विज्ञानी ॥३॥ सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १९२५ पूछेहु रामकथा अति पावनि । सुरु सनादिक सम्नु मन आवनि ॥ सतसङ्गति दुर्लभ संसारा । निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥३॥ • पाप ने शुकदेव, सनकादिक और शिवजी के मन में सुहानेवाली रामचन्द्रजी की अत्यन्त पवित्र कथा पूली । संसार में सत्सा दण्ड वा पल भर एक बार भी हाना दुर्लभ वस्तु है ॥३॥ देखु गरुड़ निज हुइय विचारी । मैं रघुबीर भजन अधिकारी । सकुनाधम सब भाँति अपावन । प्रमु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥४॥ हेगारजी ! अपने हदय में विचार कर देखिये कि मैं रघुनाथजी के भजन का अधिः कागे? चाण्डाल पक्षी सय तरए से अपवित्र मुझ को प्रभु रामचन्द्रजी ने जगत्मसिद्ध पावन बना दिया था दो०-आजु धन्य धन्य अति, जापि सच विधि हीन । निज जन जानि राम मोहि, सन्त समागम दीन । यद्यपि में सप प्रकार से तुच्छ हूँ पर आज ]धन्य अतिशय धन्य हुआ कि अपना दास जान कर रामचन्द्रशी ने मुझे सन्त समागम (सत्पुरुष का मिलाप) दिया। नाथ जथामति भाखेउँ, राखेउँ नहिं कछु गाइ । धरित सिन्धु नघुबीर के, थाह कि पावइ कोइ ॥१२३॥ हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा कुछ छिपा नहीं रखा, पर रघुनाथजी के परिव कसी समुद्र का क्या कोई थाह पा सकता है ? (कभी नहीं) ॥१३॥ '-सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष सुंडि सुजाना ॥ महिमा निगम नेति करिगाई । अतुलित बल प्रताप रघुराई ॥१॥ रामचन्द्रजी के नाना गुणों का स्मरण कर चतुर कागभुशुण्डजी शर बार प्रसन हो रहे हैं। रघुनायजी का बल प्रताप मतोल है, उनकी महिमा इति नहीं कह कर वेदों ने गाई है। सिव अज पूज्य चरन रघुगई । मो पर कृपा परम मृदुलाई । अस सुभाव कहुँ सुनउँ न देखौं । केहि खगेस रघुपसि सम लेखा ॥२॥ रघुनाथजी के घरण शिव और ब्रह्माजी से पूजनीय हैं, उनकी मुझ पर कृपा होना मत्यात कोमलता है। पतिराज ! ऐसा स्वभाव न कहीं सुनता हूँ न देखता हूँ, फिर किसको रघुनाथजी के समान समझू ॥२॥ साधक सिद्ध शिमुक्त उदासी । कबि कोबिद कृतज्ञ सन्यासी ॥ साधक, सिद्ध जीवन्मुक्त, विगतपुरुष, कवि, विद्वान, छतर, सन्यासी, योगी, शर, अच्छे तपस्वी, बानी, धर्मात्मा, पण्डित और विज्ञानी ॥ ३ ॥ .