पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस। तरहि न बिनु खेये मम स्वामी । रामः नमामि नमामि नमामी। गये मासे अघरासी। हाहिँ सुटु नमामि अबिनोसो ॥१॥ बिना मेरे स्वामी की सेवा किये तरते नहीं, मैं रामचन्द्र जी को नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, सिर नवाता हूँ। जिनकी शरण जाने से मुस से पाप के राशि पवित्र होते हैं, उन अविनाशी परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ Hen दो०-जासु नाम भवभेषज, हरन ताप त्रयसूल । सो कृपाल सोपर सदा, रहहु राम अनुकूल ॥ जिनका नाम संसार रूपी रोग की औषधि है और तीनों तापों की पीड़ा को हरनेवाला है, वे कृपालु रामचन्द्रजी सदा मुझ पर प्रसन्न रहे। ससा की प्रति में 'सो कपाल मोहि तोहि पर, सदा रहा अनुकूल' पाठ है। वहाँ अर्ध होगा कि-"वे कपातु मुझ पर और आप पर सदा प्रसन्न रहे"। सुनि भुसुंडि के बचन सुभ, देखि राम-पद नेह । बोलेउ प्रेम सहित गिरा, गरुड़ बिगत सन्देह ॥१२॥ भुशुण्डी के घचन सुन कर और रामचन्द्रजी के चरणों में उनकी प्रीति देख कर गरुड़जी प्रेम के सहित सन्देह रहित वाणी बोले ॥१२४॥ चौ--मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानो ।' राम चरन नूतन रति भई । माया जनित बिपति सब गई ॥१॥ रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम से सनी हुई श्राप की वाणी सुन कर मैं कृतार्थ (सफल मनोरथ) हुा । रामचन्द्रजी के चरणों में नवीन प्रीति हुई और माया से उत्पन्न समस्त विपत्ति जाती रही ॥१ मोह जलधि बोहित तुम्ह भये । मा कहँ नाथ बिबिध सुख दये ॥ सो पहि होइन प्रतिउपकारा । बन्दउँ तव पद धारहिं बारा ॥२॥ हे नाथ ! अज्ञान रूपी समुद्र के आप जहाज रूप हुए, डूबते से बचाकर मुझ को नाना प्रकार का सुख दिया। मुझ से श्राप का कोई प्रत्युपकार (इस भलाई के बदले में मलाई). नहीं हो सकता, इससे चार बार आप के चरणों में प्रणाम करता हूँ ॥२॥ पूरनकाम राम अनुरागी । तुम्ह सम तात न कोउ बड़ागी। सन्त बिटप सरिता गिरि धरनी। परहित हेतु सबन्ह के करनी ॥३॥ हे तात ! आप पूर्णकाम और रामचन्द्रजी के प्रेमी हैं, आप के समान बड़ा भाग्यवान कोई नहीं है । सन्त, वृक्ष, नदी, पहाड़, और धरती इन सबों की करनी पराये की भलाई के । । । लिये है ॥३॥