पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१९

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११४० रामचरित मानस । चौ०-रामकथा गिरिजा में बरनो । कलिमल समनि मनोमल हरनी। संसृतरोग सजीवन मूरी । रामकथा गावहिँ स्रुति भूगे ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे गिरिजा ! मैं ने जा रामचन्द्रजी की कथा वर्णन की है, वह कलि के पापों का नाश करनेवाली और मन के मैल को हरनेवाली है। वेद बहुत तरह से गाते हैं कि रामकथा संसार सम्बन्धी रोगों के लिये सजीवनी जड़ी है ॥१॥ सभा की प्रति में 'कलि मल-हरन मना-मल हरनी' पाठ है, मालूम होता है 'हरन' शब्द की पुनरुक्ति दृष्टि-देष ले हुई है । गुटका में 'रामकथा गावहिं त्रुति सूरी, पाठ है, परन्तु 'सुरी' शब्द का कोई अर्थ ही ठीक नहीं लगता जो प्रसङ्ग में अनुकूल पड़ा हो । सूरी फाँसी को कहते हैं यहाँ रामकथा किसके लिये फाँसी है। क्या संसृत रोगों के लिये ? उनका रूपक शरीरधारियों से नहीं कहा गया है। एहि मह रुचिर सपक्ष सोपाना । रघुपतिनगति केर पन्धाना ॥ अति हरिकृपा . जाहि पर होई । पाउँ देइ एहि मारग सेाई ॥२२॥ इसमें सुन्दर सात सीढ़ियाँ हैं वे रघुनाथजी की भक्ति के रास्ते हैं । जिसपर भगवान की बड़ी कृपा होती है वही इस मार्ग में पाँव रखता है ॥२॥ मनकामना सिद्धि नर पावा । जे यह कथा कपट तजि गावा ॥ कहहिँ सुनहि अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥३॥ जो मनुष्य छल छोड़ कर इस कथा को गावगे वे मनकामना की सिद्धि पायेंगे । जो कहते हैं, जुनते हैं और समर्थन करते हैं वे संसार रूपी समुद्र को गोय के खुर के समान पार कर जाते हैं । सुनि सुभकथा हृदय अति भाई । गिरिजा बाली गिरा सुहाई ॥ नाथ कृपा मम गत सन्देहा । राम-चरन उपजेउ नव नेहा ॥४॥ कल्याणमयी कथा सुन कर पार्वतीजी के मन में वह बहुत प्यारी लगी, वे सुहावनावाणी ले बोली । हे नाथ ! आप की कृपा से मेरा सन्देह दूर हो गया और रामचन्द्रजी के चरणों में नवीन स्नेह उत्पन्न हुश्रा ॥४॥ दो-मैं कृतकृत्य भइउँ अब, तव प्रसाद बिस्वेस । उपजी रामभगति दृढ़, बीते सकल कलेस ॥ १२६ ।। हे विश्वनाथ ! आपकी कृपा.से मैं सफल मनोरथ हुई मुझे दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हुई और सम्पूर्ण क्लेश नष्ट हो गये ॥१२|| यहाँ शिव-पार्वती सम्बाद समाप्त हो गया। अब याज्ञवल्क्यजी भरवाज मुनि से कहते हैं। " ।