पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११४१ चौ०-यह सुभ सम्भु-उमा सम्बादा । सुख सम्पादन समन बियादा ॥ भव भजन गञ्जन सन्देहा । जन रजन सज्जन प्रिय एडा ॥१॥ यह शिव-पार्वती का शुभ सम्बाद सुख का प्रकाश और विषाद का नाश करनेवाला है यह संसार संम्बन्धी कष्टों को चूर चूर करनेवाला, सन्देहों का नाशक, लोगों को प्रसन्नकारक और सज्जनों को प्यारा है ॥९॥ राम-उपासक जे जग माहीं । एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥ रघुपति कृपा जथामति गावा । मैं यह पावन चरित सुहावा ॥२॥ "जगत में जो रामचन्द्रजी की उपासना करनेवाले हैं उनको इस (कथा) के समान कुछ भी प्रिय वस्तु नहीं है। मैं ने यह पविन सुझावना चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार रधुनाथजी की कृपाले वर्णन किया ॥२॥ यहाँ याशवरभ्य भरवाज सम्बाद समाप्त हुआ । सीधे शब्दों में मुनिवरों के सम्बाद की इति नहीं कहा, घुमा कर प्रसङ्ग बल से परिचय देना 'प्रथम पर्यायाक्ति प्रकार है। अब नीचे गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं । एहि कलिकाल न साधन दूजा । जोग जज्ञ जप तप ब्रत पूजां ॥ रामहि सुमिरिय गाइय रामहि । सन्तस सुनिय राम गुन-ग्रामहि ॥३॥ इस फलिकाल में योग, यश, जप, तप, व्रत और पूजा आदि दूसरे कोई साधन नहीं हैं। रामचन्द्रजी का स्मरण, रामचन्द्रजी का बखान कीजिये और रामचन्द्रजी के गुण-समूह को सुनिये ॥३॥ योग, यज्ञादि साधनों का निषेध इसलिये किया कि वह धर्म रामस्मरण और राम-गुण- गोन में स्थापित करना मजूर है । यह 'एस्तापहुति अलंकार' है। जासु पतित-पावन बड़ बाना । गावहिँ कवि सुति सन्त पुराना ॥ ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजे गति केहि नहिं पाई ॥४॥ जिनकी बहुत बड़ी नामपरी पापियों को पवित्र करने की है, ऐसा वेद पुराण सन्त और कवि घखानते हैं । हे मन ! कुटिलता त्याग कर उनको भज, रामचन्द्रजी का भजन करने से किस ने मोक्ष नहीं पाया ? अर्थात् पापी से पापी प्राणियों को सुन्दर गति मिली है || .गोस्वामीजी कहते तो अपने मन से हैं, पर इसका उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लोगो को विशेष सूचना देने का 'शूढोक्ति अलंकार' हैं। हरिगीतका-छन्द। पाई न केहि गति पतितपावन, राम भजि सुनु सठमना । गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ।