पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२२१

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+ रामचरित-मानसं। ११४२ t आमीर जमन किरात खस स्त्रपचादि अति अघ रूप जे । कहि लाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१७॥ अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितों को पवित्र करनेवाले रामचन्द्र जी का भजन करके किसने मोक्ष नहीं पाया ? वेश्या, अजामिल, व्याध, गिद्ध और हाथी आदि बहुन मे दुष्टों का उन्होंने उद्धार किया है । अहीर, यवन, शिरात, खस और हेला नादि जो अत्यन्त पाप के रूप ही थे वे भी एक बार नाम कह कर पवित्र हो गये, उन रामचन्द्र जी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१७॥ गणिका, अजामिल और हाथी का संक्षिप्त विवरण बालकाण्ड में २५ चे दोहे के आगे चौथी चौपाई के नीचे की टिप्पणी, देखो व्याध-एक ने श्रीकृष्णचन्द्रजी को बाण मारा था, दूसरे ने कपोत कपोती को खाया था । भगवान ने दोनों का उद्धार किया । गीध-की कथा अरण्यकाण्ड में ३०वे शेहे को देखा। अभीर-सुन्दरकाण्ड में ५४वे दोहे के आगे तीसरी चौपाई के नीचे देखो। यमन एक जर्जर यमन मलत्याग करने गया, दैवयोग से उसको शुकर ने मारा 'हराम' कहते हुए उसने प्राण त्याग किया।नाम के प्रभाव से हरिलोक को गया। कोल किरात और दास आदि का सम्मान चित्रकूट निवास के समय अयोध्याकाण्ड में देखो। श्वपच- हरिभक्त था. श्रीकृष्णचन्द्र ने युधिष्ठर के यज्ञ में उसे प्रतिष्ठा दिलवाई और अन्त में उसको अपना लोक दिया। रघुबंस-भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहि जे गावहीं । कलिमल मनोमल धोइ बिनु सम, रामधाम सिधावही ।। सतपञ्च चौपाई मनाहर, जानि जो नर उर धरैं दारुन अबिझापञ्च-जनित विकार श्रीरघुबर हरॆ ॥१८॥ रघुकुल के भूषण रामचन्द्रजी का यह चरित्रं जो मनुष्य कहेंगे, सुनेंगे और गावेगे, वे कलि के पाए और मन का मैलापन धो कर वैकुण्ठ को जायगे। मनोहर चौपाइयों को जो मनुष्य सवा पञ्च जान कर हृदय में धारण करेंगे उनके हृदय में अविद्यामाया के (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि फसादी) पञ्चों से उत्पन्न हुए दोष को श्रीरघुनाथजी हर लेगे ॥१॥ केवल इस कथा के कहने, सुनने और गाने से कलि के पाप, मनोमल का साफ होना और हरिधाम को जाना अलभ्य लाभ वर्णन 'द्वितीय विशेष अलंकार है। चौपाइयों पर सतपञ्च का आरोप और अविद्यामाया के सहायकों पर असतपञ्च का अारोपण 'सम अभेदरूपक अलं- कार' है । सतपञ्चों के सहायक श्रीरघुनाथ जी हैं, यह उनमें अधिकता है। सतपत्र चौपाई के अर्थ में बड़ी धींगाधींगी लोगों ने मचा रखी है। कोई १०५ कोई ५०० और कोई ५१०० चौपाइयों को सतपमानते हैं और शेष रामचरितमानस को चैपाइयाँ उनके विचार से असतपय हैं। इस पर लोगों ने अलग पुस्तके लिख डाली हैं, यहीं तक इसकी समाप्तिनहीं हुई है। एक सज्जन ने गोस्वमीजी के नाम से पुस्तिका लिख कर यही बात कही है । इस महाजाल का कोई हर नहीं है । उन महापुरुषों को यह नहीं सूझ पड़ा कि जिस रामायण की आदि से अन्त तक स्थान स्थान में गोस्वामीजी ने भूरिभूरि प्रशंसा को है, फिर वे अपने मुष से यह कैसे कहेंगे कि केवल ५०० चौपाइयाँ सतपक्ष हैं और बाको असतपा। उनके कहने का तात्पर्य तो यह है