पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२२२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११४२ कि रामायण की चौपाइयाँ सच्चे पञ्च के समान हैं, और सच्चा फैसला देती हैं, इनकी सचाई को सहायता करनेवाले रघुनाथजी हैं । जो इनके निर्णय को हृदय में धारण करेंगे उनके हदय से अधिधा के सतपशो की धींगाधीगी का दोष रामचन्द्रजी मिटा देते हैं । जैसे लोक में जो .प्रतिष्ठित पञ्चों के फैसले को नहीं मानता उसको अदालत विवश करके मनवाती है। उसी प्रकार रामायण की चौपाई रूपी सतपञ्च के फैसले को न मान कर विकार हृदय में आना चाहेंगे तो बड़ी अदालत के हाकिम उन्हें रोक रक्खेंगे, आने नहीं देंगे। सुन्दर सुजान कृपानिधान अनाथ पर कर प्रीति जो। सो एक राम अकाम-हित निर्बान प्रद सम आन को । जाको कृपा लवलेस तै मतिमन्द तुलसीदासहूँ। पायउ परम बिखास राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥१९॥ जो सुन्दर सुजान कृपानिधान रामचन्द्रजी मनायों पर प्रीति करते हैं, ऐसा अद्वितीय निष्प्रयोजन दूसरे की भलाई करनेवाला और मोक्ष देनेवाला रामचन्द्रजी के समान कौन है ? ( कोई नहीं )। जिनकी लवलेश मात्र कृपा से नीच-बुद्धि तुलसीदास भी परम विधान पाया अतएव रामचन्द्र जी के समान स्वामी कहीं नहीं है । १६॥ दो०- मोसम दीन न दीनहित, तुम्ह समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भोर ।। हे रघुनाथजी ! मेरे समान दीन नहीं और आप के समान कोई दोनों का हितकारी नहीं है। हे रघुवंश-मणि ! ऐसा विचार कर मेरे भीषण संसार-भय को हर लीजिये। मैं दीन हूँ और आप दीन हितकारी हैं। यथायोग्य का साथ वर्णन 'प्रथम सम अलंकार' है। कामिहि नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरन्तर, प्रिय लागहु मोहि राम ॥१३०।। हे रघुरुल के सामी, रामचन्द्रजी ! मुझे निरन्तर श्राप वैसे ही प्यारे लगे, जैसे सामी. पुरुषों को स्त्री पयारी लगती है और जिस प्रकार लोभी को द्रव्य मिय होता है ॥१३०॥ · सभा की प्रति में 'तिमि रघुवंस निरन्तर, प्रिय लागहु मोहि राम पाठ है। शार्दूलविक्रीड़ित-वृत्त। यत्पूर्व प्रभुणाकृतं सुविना नीशम्भुना दुर्गमं । श्रीमद्रामपदाजभक्तिमनिशं प्राप्नुतु रामायणम् ॥ मत्वा तद्रधुनाथनोमनिरतं खान्तस्तमःशान्तये । भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥१॥