पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२२३

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११४४ रामचरित मानस । पहले समर्थ श्रेष्ठ कवि श्रीशङ्करजी ने जिस दुरूह रामायण को निरन्तर भीरामचन्द्रजी के चरण-कमलों में भक्ति प्राप्त होने के लिये बनाया था। तुलसीदास ने उस (रामायण) को राम नाम में तत्पर मान कर अपने अन्तःकरण के अज्ञान की शान्ति के लिये इस मानसरामा... यण को उसी प्रकार भाषा में बनाया ॥२॥ सभा की प्रति में प्राप्नोतु रायायणम् और भाषाबन्ध मिदं चकार' पाठ है। पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञान भक्तिप्रदं। मायामाहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरशुभम् । श्रमदामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये। ते संसार पतङ्ग घोर किरणर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥२॥ यह श्रीरामचरितमानस पवित्र, पापों का हरनेवाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति का देनेवाला है । माया मोह और पापों का नाशक, अत्यन्त निर्मल श्रेष्ठ प्रेम रूपी जल से भरा है। जो भक्तिपूर्वक इस में स्नान करते हैं वे मनुष्य संसार रूपी सूर्य की प्रकार किरणों ले नहीं जलते (परम शान्ति पा कर सदा प्रसन्न रहते) हैं ॥२॥ इति श्रीरामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने अविरल हरिभक्ति सम्पादनो नाम सप्तमः सोपानः समाप्तः । इस प्रकार सम्पूर्ण कलियुग सम्बन्धी पापों का नाश करनेवाला श्रीरामचरितमानस में अविरल हरिभक्ति सम्पाइन नामवाला सातवाँ सोपान समास हुआ। शुभमस्तु-मङ्गलमस्तु !