पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२३

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1- - रामचरित-मानस । ७२ दो०--सतीहृदय अनुमान किय, सब जानेउँ सरवज्ञ । कोन्ह कपट मैं सम्भु सन, नारि सहज जड़ अज्ञ ॥ सती ने मन में विचार किया कि सर्वश स्वामी सब जान गये। मैं ने शिवजी से छल किया, स्त्रियाँ स्वभाव से मूर्म और नासमझ होती हैं। सो०-जल पय सरिस बिकाइ, देखहु प्रीति कि रीति मलि । बिलग होत रस जाइ, कपट खटाई परतहीं ॥५॥ प्रीति की अच्छी रीति देखिये कि पानी दूध के समान विकता है । पर ऋपट सपो मटाई के पड़ते ही (दृध पानी दोनों ) अलग होजाते हैं और स्वाद जाता रहता है 1991 पानी दूध में मिलने से दूध के भाव विकता है, यह उपमान वाक्य है। बिना वाचक पद के प्रीति से समता दिखाने में विस्व-प्रतिविम्व भाव झलकता है कि प्रीति के मीच कपट पाने से वह अलग हो जाती है, जैसे दूध में खटाई पड़ने से दूध और पानी अलग हो जाता है। यह 'दृष्टान्त अलंकार' है । सभा की प्रति में विलग होइ रस लाइ, कपट खटाई परत पुनि' पाठ है। चौ०--हृदय सोच समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहि बरनी॥ कृपासिन्धु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥१॥ अपनी करनी समझ कर हृदय में अपार सोच और चिन्ता हुई, जितकावर्णन नहीं किया जा सकता। वे जान गई कि शिवजी बड़े ही गम्भीर कृपा-सागर हैं. इससे मेरा अपराधप्रकट नहीं कहा ॥१॥ सङ्कर-रुख अबलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदय अंकुलानी ॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥२॥ शंकरजी का रुख देख कर भवानी हवय में व्याकुल दुई कि स्वामी ने मुझे तज दिया । अपना पाप समझ कर उनले कुछ कहा नहीं जाता, आँधा के समान छाती देहद जस रही है ॥२॥ सतिहि सच जानि वृषकेतू । कही कथा सुन्दर सुख-हेतू ।। बरनत पन्ध बिबिध इतिहासा । विस्वनाथ पहुंचे कैलासो ॥ ३ ॥ सती को सोच युक्त जान कर शिवजी ने उनको प्रसन्नता के लिए सुन्दर कथाओं का वर्णन किया। रास्ते में अनेक प्रकार का इतिहास कहते हुए लोकों के स्वामी कैलास पहुंचे। सहँ पुनि सम्झु समुझि पन आपन । बइठे बट तर करि कमलासन ॥ सहज-सरूप फिर वहाँ शिवजी अपनी प्रतिभा को समझबड़ के नीचे पनासन लगा कर बैठे। संभारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥४॥ शंकरजी ने अपना स्वाभाविक स्वरूप समाला, उनको अखण्ड अपार समाधि लगी ।।