पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२३४

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मानस-पिङ्गल। १० काव्य विवेचन। काय दो प्रकार का होता है, दृश्य और श्रव्य । दृश्य काव्य वह है जिसका अभिनय किया जाय और श्रम वह है जिसका अभिनय न किया जाय । अभिनय का अर्थ अनुकरण करना है जैसे जो जो कार्य रामचन्द्रजी ने किये वैसे ही नट रामचन्द्रजी का रूप धर कर करें तो उसके कार्यों को अभिनय कहेंगे। अभिनय करने में आप का आरोप करना पड़ता है, इससे इसे रूपक भी मानते हैं और नाटक मी कहते हैं। दोनों प्रकार के काव्यों में तीन भेद हैं उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । साहित्य विशारदों ने अथ को भी तीन भेदों में विभक किया है अर्थात् पाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यतार्थ । (१) जैसे 'गृह' शब्दवाचक है और उससे जो साङ्केतिक अर्थ मन्दिर विशेष का बोध होता है, वह गृह शब्द का वाच्यार्थ है। इस व्यापार को शक्ति का अभिधावृत्ति कहते हैं। (२) जब शब्द का वाच्यार्थ वक्ता के इच्छित अर्थ के अनुसार नहीं होता वरन् उसका इच्छित अर्थ लाने के लिये उस शब्द का अथ कल्पित करना पड़ता है उसे उस शब्द का लत्यार्थ कहते हैं । जैसे-'दुकान बढ़ा दो' यहाँ चढ़ाना शब्द का वाच्यार्थ अधिक करने पर भी धक्का का इच्छित अर्थ दुकान बन्द कर देना ग्रहण करना पड़ता है। इसको लक्ष्यार्थ और उस शब्द को लक्षक मानते हैं । इस शब्द च्यापार को लक्षणावृत्ति कहते हैं। (३) शब्द वा शब्द समूह के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से पृथक् ध्वनि द्वारा प्रकट होने पालाअर्थव्यतार्थ कहलाता है और वद शब्द वा शब्द समूह उसका व्यखक है। इस शब्द व्यापार को व्यजनावृत्ति कहते हैं। इसका विस्तार बहुत बड़ा है, यहाँ दिग्दर्शनमात्र किया गया है। काम्य में जिन जिन मनोविकारों का वर्णन कवि लोग करते हैं उन उन मनोविकारों के कारण कार्य और उनके सहकारियों का ठीक ठोक वर्णन पाया जाता है तब पाठकों के मन में भी वे मनोविकार जागृत होते हैं और उन्हें एक प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है उसी को 'रस' कहते हैं। मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि विकार ही का नाम रस है। विभाव, अनुभाव और समचारी मावों की सहायता से जब स्थायीभाव उत्कट अवस्था को प्राप्त होकर मनुष्य के मन में विलक्षण प्रानन्द उपजाता है तब उसको रस कहते हैं। अलकार शास्त्रियों ने रसे की संख्या निश्चित कर दी है। काव्य में उन्होंने ६ रस माने 5 हैं। यथा- (१) श्ङ्गार । (२) हास्य । (३) करुणा । (४) वीर । (५) रोद (६) भयानक । (७) अद्भुत.। (८) बीभत्स 1 (8) शान्त । क्रमशः इन रखों के रति, हास, शोक, उल्लाह, क्रोध, भय, माश्चर्य, घृणा और निर्वेद स्थायीभाव हैं। इन्हीं नवा स्थायीभावों को पुष्टि जर विभावादि के द्वारा होती है, तब 'रस' संशा होती है। विभाव। विभाव प्रत्येक रस के भिन्न भिन्न होते हैं। जिसके सहारे मनोविकार वृद्धिलाभ करते हैं, उस कारण को विभाष कहते हैं । यह आलम्बन और उद्दीपन दो भागों में विभक्त है। जिसके