पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२३५

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मानस-पिङ्गल। आधार से विकार उत्पन्न हो वह आलम्बन और जिसके सहारे वृद्धिलाभ हो वह उहीपन विभाष कहलाता है। अनुभाव। मनोविकार की उत्पत्ति के अनन्तर वे कार्य और क्रियाएँ जिनसे रस का बोध हो। चित्त के भाव को प्रकाश करनेवाली चेष्टाएँ अनुभव कहलाती है। इसके चार भेद हैं। लात्विक, कायिक, मानसिक और आहार्य । सात्विक अनुभाव यह है जिसमें स्वाभाविक अविकार सत्वगुण से उत्पन्न है। । यह ओठ प्रकार का है । स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, स्वरमन, वेपथु, वैवर्य, अश्रु और प्रलय। . कायिक-शारीरिक क्रिया और मुख पर प्रकट होनेवाले चिह्न । मानसिक-मन की अवस्था प्रकट करना। आहार्य रूप बदल कर अभिनय द्वारा भाव प्रदर्शित करना। सञ्चारीभाष। जो भाव रल को विशेष रूप से सम्पादन करके पानी की लहर के समान लीन हो जाते हैं। ये रस की सिद्धि तक ठहरते नहाँ बिजली की तरह चलता से सब रसों में सवार करते हैं इसलिये सञ्चारी कहाते हैं और व्यभिचारी भी कहे जाते हैं। ये तैतीस प्रकार के होते हैं । यथा-- (१) निर्वेद । (२) ग्लोनि । (३) शङ्का । (0) असूया । (५) मद । (६) श्रम । (७) आलस्य (e) दैन्यः । (३) चिन्ता । (१०) माह । (११) स्मृति । (१२) धृति । (१३) बीड़ा । (१४) चप- लता । (१५) हर्ष । (१६) भावेग। (१७) बड़ता । (१८) गर्व । (१६) विषाद । (२०) उत्सुकता (२१) निद्रा । (२२) अपस्मार । (२३) सोना निद्रावस्था । (२४) विवोध । (२५) अमर्ष । (२६) अवाहित्थ । (२७) उन्नता । (२८) मति । (२8) ज्योधि । (10) उन्माद । (३१) भरण । (३२) बास । (३३) वितर्क । इनके अलग अलग लक्षण कहने से बहुत विस्तार होगा, अब मैं एक रस का उदाहरण दिखा कर इस प्रसङ्ग को समाप्त करता हूँ। रौद्र रस का उदाहरण । शत्रु सामने आ कर दुर्वचन कहता हुआ अस्त्र प्रहार करना चाहता है, उसकी चेष्टा से हृदय में जो क्रोध उत्पन्न होगा वह स्थायी भाव है। शत्रु आलम्बन विमाव है, उसका किया हुआ तिरस्कार, मानभङ्ग, अस्त्रप्रहार के लक्षण उहीपन विभाव है। उससे ओलं लाल होना, त्योरी चढ़ाना, ओंठ चबाना, ताल ठोकना और मारने की चेष्टा करना अनुभाव है। अमर्ष, चपलता, स्मृति, विषाद, उग्रता आदि सञ्चासे भावों की सहायता से क्रोध स्थायी भाव' पूर्णावस्था को पहुँच कर 'रोद्र रस' संशा को प्राप्त होता है।