पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ७५ पूछेउ तब सिव कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी । जौँ महेस मोहि आयसु देहौँ । कछु दिन जाइ रहउँ मिस एही ॥३॥ तव शिवजी से पूछा, उन्होंने बखान कर कहा, पिता के घर यशोत्सव, सुन कर कुछ प्रसन्न हुई। मन में सोग कि यदि शङ्करजी श्राशा दे, तो कुछ दिन इसी बहाने जा कर पिता के.यहाँ रहूँ॥३॥ पति-परित्याग हृदय दुख भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥ बाली सती मनोहर बानी । भय सङ्कोच प्रेम रस सानी ॥४॥ पति के स्याग देने का हृदय में भारी दुःख है, पर अपना अपराध समझ कर कहती नहीं । भय लाज और प्रेम-रस से मिली हुई मनोहर वाणी से सती बोली ॥२ दो०-पिता भवन उत्सव परम, जौं प्रभु आयसु हाइ। तो मैं जाउँ कृपायतन, सादर देखन सोइ ॥६१॥ हे कृपा के स्थान प्रभो मेरे पिता के घर परमोत्सव है, यदि आशा हो तो मैं आदर के साथ उसे देखने जाऊँ॥ ६॥ चौ०-कहेहु नीक मोरे मन मावा । यह अनुचित नहिँ नेवत पठावा ॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरे बयर तुम्हहुँ बिसराई ॥१॥ शिवजी ने कहा-अच्छा कहती हो, मेरे मन को सुहाता है, पर अनुचित तो यह है कि उन्होंने नेवता नहीं भेजा। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया; किन्तु हमारे बैट से तुम्हें भी भुला दिया ॥१॥ ब्रह्म-सभा हम सन दुख माना । तेहि तँ अजहुँ करहिं अपमाना ॥ जौं बिनु बोले जाहु भवानी । रहइ न सील सनेह न कानी ॥२॥ ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हुए थे, उसी से अब ( यज्ञ में) भी हमारा अपमान करते हैं । हे भवानी ! जो 'तुम बिना बुलाये जाओगी तो शील न रहेगा, न स्नेह और न मर्यादा ही रह जायगी ॥२॥ जदपि मित्र-प्रक्षु-पितु-गुरु गेहा । जाइय बिनु बोले न सँदेहा ॥ तदपि बिरोध मान जहूँ कोई। तहाँ गये कल्यान न होई ॥३॥ यद्यपि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के स्थान में बिना बोलाये जाना चाहिए, इसमें सन्देह नहीं तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो तो वहाँ ( इन स्थानों में भी जाने से कल्याण नहीं होता ॥३॥