पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२७

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७६ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । भाँति अनेक सम्भु समुगावा । आवी बस न ज्ञान उर आवा ॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहि बोलाये । नहिँ मलि बात हमारे भाये ॥२॥ अनेक प्रकार से शिवजी ने समझाया, पर होनहार के वश सती के दृदय में समझन आई । प्रभु शङ्करजी ने कहा-जो बिना बुलाये जानोगी तो मेरे विचार से बात अच्छी न होगी ॥३॥ दो०--करि देखा हर जतन बहु, रहइ न दच्छकुमारि । दिये मुख्य गन सङ्ग तब, बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥६२ शिवजी ने बहुत यल कर के देखा कि दक्ष की कन्या न रुकेगी, तब उन्होंने मुख्य सेवकों . को साथ में कर के विदा कर दिया ॥२॥ 'दक्षकुमारि' और 'त्रिपुरारि' संज्ञाएँ साभिप्राय हैं । दक्ष जैसे हठी की कन्या अपना हठ कैसे छोड़ सकती है ? त्रिपुर जैसे भीषण दानव के संहारकर्ता, सतो का नाश जानते हुए भी मन में क्षोभ न लाये, तुरन्त बिदा कर दिया 'परिकराङ्कुर अलंकार' है । गुटका में 'कहि देखा हर जतन बहु' पाठ है। चौ०--पिता-भवन जब गई भवानी । दच्छ-त्रास काहु न सनमानी । सादर भलेहि मिली एक माता ।भगिनीमिली बहुत मुसुकाता ॥१॥ जय भवानी पिता के घर गई तव दक्ष के डर से किसी ने उनका सत्कार नहीं किया। एक माता भले ही श्रादर के साथ मिलों और पहिने बहुत मुस्कुरोती हुई मिली ॥ १ ॥ बहनों के मुस्कुराने में तिरस्कार-सूचक व्यङ्ग है कि देखो सती बिना पिताजी के धुलाये आप ही अोप अनादर सहने को पाई है। दच्छ न कछु पूंछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता । सती जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दोख सम्भु कर आगो ॥२॥ दक्ष ने कुछ कुशलता न पूछी वरन् सती को देख कर उनका सारा शरीर ( क्रोध से) जल गया। तब सती ने जा कर यह को देखा, वहाँ कहाँ शिवजी का भाग नहीं दिखाई दिया ॥२॥ तब चित्त चढ़ेउ जो सङ्कर कहेऊ.। प्रभु-अपमान समुझि उर दहेज़" पाछिल दुख न हृदय अस व्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥३॥ तव जो शिवजी ने कहा था वह बात मन में याद आई और स्वामी का अनादर समझ' कर हृदय जल गया। पिछला ( पति के त्यागने का ) ऐसा दुःख हृदय में नहीं फैला था जैसा यह ( पिता से अपमानित होने का) महान छेद हुमा १३ ॥ .