पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२८

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1 ७७ रामचरित मानस । जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तँ कठिन जाति-अपमाना । समुझिसे सतिहिभयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा॥४॥ यपि संसार में अनेक तरह के भयङ्कर दुःख हैं, पर जाति से अपमानित होना सब से कठोर केश हैं। यह सोच कर सती को बड़ा क्रोध हुआ, माता ने अनेक प्रकार समझाया. धुझाया (किन्तु उन्हें सन्तोष न हुना) ॥४॥ पहले एक साधारण घात कही कि पति परित्याग का ऐसा दुःख नहीं हुआ, जैसा पिता के अपमान से क्लेश हुआ फिर इसका विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि यद्यपि नाना दुखि संसार में हैं, पर जात्यापमान सब से भीषण है, अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। दो-सिव अपमान न जाइ सहि, हृदय न होइ प्रबोध । सकल समाहि हठि हटकि तब, बोली बचन सक्रोध ॥३॥ शिवजी का अपमान सहा नहीं जाता, इससे मन को सन्तोष नहीं होता है, तब सारी समा को हठ से रोक कर क्रोध-पूर्वक वचन बोली ।। ६३ ॥ चौ-सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा । कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा । सो फल तुरत लहब सब काहू । भली भाँति पछिताब पित्ताहू ॥१॥ हे सम्पूर्ण सभासदो और मुनीश्वरो ! सुनिए, जिन्होंने शिवजी की निन्दा कही और सुनी है उसका फल उन सब को तुरन्त मिलेगा। मेरे पिता भी अच्छी तरह पछतायेंगे ॥१॥ सन्त-सम्भु-श्रीपति अपबादा । सुनिय जहाँ तहँ असि मरजादा । काढ़िय तासु जीभ जो बसाई । सवन मदि न त चलिय पराई ॥२॥ सन्त, शिवजी और विष्णु भगवान् की निन्दा जहाँ सुनिए वहाँ ऐसी मर्यादा है कि जो वश चले तो निन्दक की जीभ निकाल कर फेक दे, नहीं तो कान मूंद कर भाग जाय ॥२॥ सभा की प्रति में काटिय तासु जीभ जो बसाई पाठ है। जगदातमा महेस पुरारी। जगत-जनक सब के हितकारी ॥ पिता-मन्दमति निन्दत तेही । दच्छ-सुक्र-सम्भव यह देही ॥३॥ त्रिपुर-दैत्य के वैरी महेश्वर जगत् की आत्मा, संसार के पिता और सब के कल्याण- कर्ता हैं । नीव बुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष के वीर्य से उत्पन्न है॥३॥ निन्दक के वीर्य से उत्पन्न शरीर में जीवित रहना निन्ध है, यह व्यङ्गार्थ और वाच्यार्थ बराबर होने से तुल्य प्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है । तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चन्द्रमौलि अषकेतू ॥ अस कहि जोग-अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥४॥ इसलिए मैं चन्द्रमा मस्तक पर धारण करनेवाले धर्मध्वज शङ्करजी को रदय में रखकर