गुरुजनों की लाज से चतुराई पूर्वक प्रीति को छिपाना 'अवहित्य सञ्चारीभाव' है और अपनी पूर्वकृत् दुर्नीति के विचार से मिलने का सन्देह 'शङ्का सञ्चारीभाव' है।
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिँ दम्पति सखी सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिय उपाऊ॥४॥
नारदजी की वाणी झूठी न होगी, (यह सोचकर) सयानी सखियाँ और मैना के सहित हिमवान चिन्ता करने लगे। शैतराज ने हदय में धीरज धारण करके कहा – हे नाथ! कहिए, क्या उपाय किया जाय?॥४॥
दो॰ – कह मुनीस हिमवन्त सुनु, जो विधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि, कोउ न मेटनिहार॥६८॥
मुनीश्वर ने कहा – हे हिमवन्त! सुनिए, ब्रह्मा ने जो लखाट में लिखा है, उसको देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग और मुनि कोई मिटानेवाला नहीं है॥६८॥
चौ॰ – तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करइ जौँ दैव सहाई॥
जस घर मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीँ। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीँ॥१॥
तो भी मैं एक उपाय कहता हूँ, यदि ईश्वर सहायता करेगा तो वह हो सकता है। जैसा वर मैंने आप से कहा है, उमा को वैसा ही मिलेगा इस में सन्देह नहीं॥१॥
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिँ मैं अनुमाने॥
जौँ बिबाह सङ्कर सन होई। दोषउ गुन सम कह सब कोई॥२॥
मैं ने जिन जिन दोषों का वर्णन किया उन सब का अनुमान शिवजी में करता हूँ। यदि शङ्कर से विवाह हो तो उनके दोषों को भी सब कोई गुण के समान कहते हैं॥२॥
जौँ अहि-सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोष न धरहीँ॥
भानु-कृसानु सर्ब-रस खाहीँ। तिन्ह कहँ मन्द कहत कोउ नाहीँ॥३॥
यदि विष्णु भगवान् शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं विज्ञजन उनको कुछ दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्नि (भले बुरे) सब रस खाते हैं, पर उन्हें कोई खराब नहीं कहता॥३॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहँ नहिँ दोष गोसाँई। रवि पावक सुरसरि की नाँई॥४॥
पवित्र और अपवित्र सब जन गाजी में बहता है, पर गंगामी को कोई अपवित्र नहीं कहता। हे स्वामिन्। सूर्य, अग्नि और गङ्गाजी के समान समर्थ को दोष नहीं है॥४॥