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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३३

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रामचरित मानस।

दो॰ – जौँ ऐसहि इसिषा करहिँ, नर विवेक अभिमान।
परहिँ कलप भरि नरक महँ, जीव कि ईस समान॥६६॥

यदि ऐसी ही बराबरी की इच्छा ज्ञान के घमण्ड से मनुष्य करेंगे तो वे कल्प भर नरक में पड़ेंगे, क्या जीभ ईश्वर के समान हो सकता है? (कदापि नहीं)॥६९॥

सभा की प्रति में 'जौ अस हिसिया करहिं नर, जड़ बिबेक अभिमान' पाठ है।

चौ॰ – सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिँ तेहि पाना॥
सुरसरि मिले सो पावन जैसे। ईस अनीसहि अन्तर तैसे॥१॥

गंगाजल से बनाई हुई मदिरा को जानते हुए भी सज्जन लोग उसे कभी पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव का ऐसा ही अन्तर है॥१॥

सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाह सब विधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिँ महेसू। आसुतोष पुनि किये कलेसू॥२॥

भगवान् शिवजी सहज ही समर्थ हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याणा है। यद्यपि शिवजी कठिनाई से आराधन करने योग्य हैं, फिर भी क्लेश करने से वे जल्दी प्रसन्न होते हैं॥२॥

जौँ तप करइ कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेदि सकहिँ त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कह सिव, तजि दूसर नाहीँ॥३॥

यदि तुम्हारी कन्या तपस्या करे तो त्रिपुर दैत्य के वैरी रुद्र भगवान् होनहार को भी मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में असंख्यों पर हैं, पर इसको शिवजी को छोड़ कर दूसरा वर नहीं है॥३॥

बर-दायक प्रनतारति-भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक-मन-रञ्जन॥
इच्छित-फल बिनु सिव अवराधे। लहिय न कोटि जोगजप साधे॥४॥

वे वर देनेवाले, शरणागतों के दुःख नाशक, दया के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले हैं। बिना शिवजी की आराधना के करोड़ों जप योगों की साधना करने पर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता॥४॥

दो॰ – अस कहि नारद सुमिरि हरि, गिरिजहि दोन्हि असीस।
होइहि अब कल्यान सब, संसय तजहु गिरीस॥७॥

ऐसा कह कर भगवान को स्मरण करके नारदजी ने गिरिजा को आशीर्वाद दिया और कहा कि – हे गिरिराज! तुम सन्देह त्याग दो, (शिवजी की आराधना से इसका) सब कल्याण होगा॥।७०॥

सभा की प्रति में 'हाइहि यह कल्यान अर' पाठ है।