पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३९

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pe G रामचरित मानस । चौ०-कह सिव जदपि उचित अस-नोहौं । नाथ बचन पुनिभेदिन जाहीं॥ सिर धरि आयसु करिय तुन्हारा। परम धरम यह नाथ हमारा ॥१॥ शिवजी ने कहा-हे नाथ ! इस तरह का (आप का विनय करना और या माँगना) उचित नहीं है, फिर (जब कि) श्राप की श्राज्ञा मुझ से मेटी नहीं जा सकती। स्वामिन् ! मेरा यह परम-धर्म है कि आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करें। बहुत लोग यह अर्थ करते हैं कि शिवजी ने कहा-हे नाथ ! यद्यपि पार्वती के साथ विवाह करना उचित नहीं है, फिर आप की बात मेटी नहीं जा सकती अर्थात् श्राप के कहने पर लाचार हो कर मुझे व्याह करना पड़ेगा । पर यह अर्थ नहीं, अनर्थ है । इस अर्थ से और नीचे की चौपाइयों से बिल्कुल विरोध है । शिवजी यहाँ सेवक भाव से कहते हैं कि आप स्वामी हैं और मैं दास हूँ। सेवक से स्वामी विनय करे, यह कदापि उचित नहीं है। स्वामी को श्राशा करनी चाहिये और सेवक का परम धर्म उसका पालन करना है 'उचित कि अनुचित किये विचारू । धरम जाइ सिर पातक भारू । स्वामी की आज्ञा को शिवजी कभी अनुचित नहीं कह सकते। मातु-पिता-गुरु-प्रभु कै बानी । बिनहि बिचार करिय सुभ जानी ॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अज्ञा सिर पर नाथ तुम्हारी ॥२॥ पिता, गुरु और स्वामी की बात बिना पिचारे माङ्गलिक जान कर करनी चाहिये । हे नाथ! श्राप तो सव तरह परम हितकारी हैं. आप को आज्ञा मेरे सिर पर है ॥२॥ प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना । मगति-विवेक-धर्मजुत रचना ॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर रोखेउ हम जो कहेज ३॥ शिवजी के वचनों की रचना, भक्ति, ज्ञान और धर्ममय है, उसको सुनकर प्रभु राम- चन्द्रजी सन्तुष्ट छुए और कहा-हे शङ्कर ! आप की प्रतिक्षा पूरी हुई, अब हमने जो कहा है उसको हदय में रखना ॥३॥ अन्तरधान भये अस भाखी । सङ्कर सेाइ मूरति उर राखी ॥ तबहिँ सप्तरिषि सिव पहिँ आये। बोले प्रभु अति बचन सुहाये ॥४॥ ऐसा कह कर रामचन्द्रजी अदृश्य हो गये और शङ्करजी ने उनकी वह मूर्षि दय में रख लो। तघ सप्तऋषि शिवजी के पास आये ! प्रभु महादेवजी ऋपियों से अत्यन्त सुहावने वचन बोले ॥३॥ दो-पारबती पहिँ जाइ तुम्ह, प्रेम परिच्छा लेहु । गिरिहि प्रेरि पठयहु भवन, दूरि करेहु सन्देहु ॥७७६ आप लोग पार्वती के पास जा कर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिये (यदि सच्ची प्रीति है तो उनका) सन्देह दूर कर देना और पर्वतराम को कह कर भेजना कि वे उन्हें घर बुला एलोवें AER माता,