पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४१

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रामचरित मानस । दक्षप्रजापति ने अपने एक हजार पुत्रों को सृष्टिरचना का श्रादेश कर भेजा । पश्चिम दिशा में जा कर वे सब सृष्टि रचने लगे। नारद उनके पास गये और उपदेश दिया। नारद की शिक्षा से सभी दक्ष-पुत्र धन को चले गये; घर नहीं लौटे । जय दक्ष को यह समाचार मिला तब वे पुखी हुए और पुनः हज़ार पुत्र उत्पन्न करके भेजा । नारद ने उनकी भी यही दशा की। राजाचित्रकेतु के एक करोड़ रानियाँ थीं, पर पुत्र एक भी न था। अमिरा ऋषि के आशी. वाद से एक पुत्र हुआ। जवावह एक वर्ष का हुआ तव सौतेली माताओं ने विप देकर उसे मार 'डाला, जिससे राजा बहुत ही शोकातुर हुए । नारद वहाँ गये; पुत्र की जीवात्मा को योगबल से शरीर में प्रवेश करा दिया, लड़का उठ बैठा । वह कहने लगा-राजन् ! सुनो, मैं पूर्वजन्म में राजा था, विरत होकर वन में तप करने गया । वहाँ एक स्त्री ने मुझे एक फल दिया, उसमें लाखों चीटियाँ भरी थी, मैं ने विना जाने भून डाला । वे सब जल मरी। वे ही करोड चीटियाँ तुम्हारी रानी हुई और जिसने मुझे फल दिया था वह मेरी माता हुई । विमाताओं ने विष दे कर अपना बदला लिया। न आप मेरे पिता और न मैं आप का पुत्र, यह सब माया का प्रपञ्च है। यह कह कर उसकी प्रात्मा अन्तर्हित हो गई, राजा विरक्त हो घर त्याग वन में चला गया। हिरण्यकशिपु की स्त्री कौटुरा गर्भवती थी। नारद ने उसे उपदेश दिया। स्त्री पर तो उप- देश का प्रभाव नहीं पड़ा, पर गर्भस्थित बालक को शान हुआ। उस बालक ने प्रहाद होकर जन्म ! लिया। पिता के लास्त्र विरोध करने पर हठ नहीं छोड़ा। अन्त में उसके हठ से हिरण्यकशिपु का नाश ही हो गया । इसी काण्ड के २५ वे दोहे के आगे दूसरी चौपाई के नीचे प्रहाद के चरित्र की संक्षिप्त टिप्पणी और भी की गई है, उसको देखो। नारदसिख 0 सुनहिँ नर नारी । अवसि होहि तजि भवन भिखारी॥ मन कपटी तन-सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कोन्हा ॥२॥ जो स्त्री-पुरुष नारद की शिक्षा सुनते हैं; वे अवश्य ही धरत्याग कर मङ्गन हो जाते हैं। उनका मन कपटी है, केवल शरीर पर सजनों का चिह्न है, अपने समान सभी को करना चाहते हैं ॥२॥ प्रत्यक्ष तो नारदजी की निन्दा प्रकट होती है, पर समझने से प्रशंसा है कि नारद के उपदेश से स्त्री-पुरुष विरक हो जाते हैं। वे ऐसे सज्जन हैं कि सब को अपने समान देवर्षि बनाने की ताक में रहते हैं। यह 'व्याजस्तुति अलंकार' है। तेहि के बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा । निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली ॥३॥ उनके पचनों का विश्वास मान कर तुम स्वाभाविक उदासीन, गुण-हीन, निर्लज्ज, बुरे भेषधाले, मुण्डों की माला पहने,अकुलीन, विना घर का, नझा और शरीर में साँप लपेटनेवाले को पति बनाना चाहती हो ॥३॥ प्रत्यक्ष निन्दा है; पर समझने से शिवजी की प्रशंसा है, यह भी 'व्याजस्तुति है । श्रद्धेय शिवजी के विषय में मुनियों का अयथार्थ घृणा प्रदर्शित करना 'वीभत्स रसाभास' है।