पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । कहहु कवन सुख अस बर पाये। भल भूलिहु ठग के बौराये । पज कहे सिव सती बिबाही। पुनि अवडेरि मरायेन्हि ताही ॥४॥ ऐसा वर मिलने से कहो कौन सुख है ? भले तुम उगके कहने से पागल हुई हो । पञ्चों के कहने से सती शिव के साथ व्याही गई, फिर उसको पैच में डाल कर उन्होंने भरवा ही वाला॥४॥. दो-अब सुख सोवत सोच नहिँ, भीख माँगि भव खाहिँ सहज-एकाकिन्ह के भवन, कबहुँ कि नारि खटोहि ॥७९॥ शिव को कुछ सोच नही, अय भीख माँग कर खाते हैं और सुखसे सोते हैं। स्वभाव से ही ले रहनेवालों के घर क्या कभी स्त्री टिक सकती है ? ( कदापि नहीं ) पूज्यदेव शङ्करजी और नारद मुनि के कर्म का उपहास वर्णन किया जाना हास्य रसाभास' है। चौ०-अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहँ बर नीक बिचारा ॥ अति-सुन्दर सुचिसुखद सुसीला। गावहिँ बेद जासु जस लीला ॥१॥ अब भी हमारा कहना मानो तो तुम्हारे लिए हम लोगों ने अच्छा पर विचारा है। अत्यन्त सुन्दर, पवित्र, सुखदायक, सुशील और जिनके यश की लीला बेद गाते हैं ॥१॥ दूषनरहित सकल-गुन-रासो। श्रीपति पुर-बैकुंठ-निवासी ॥ अस बर तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहँसि कह बचन मवानी ॥२॥ निषि, सम्पूर्ण गुणों की गशि, लक्ष्मी के स्वामी और बैकुण्ठ-पुर के रहनेवाले, ऐसा कर तुम्हें ला कर मिलावेंगे। संप्तर्षियों की बात सुनते ही भवानी हँस कर बोलीं ॥२॥ ऊपर क्रम से निर्गुण, निर्लज्ज, कुवेष, कपाली, अकुल, अगेह, दिगम्बर और व्याली ये पाठ दोष शिवजी के गिनाये हैं। उसी प्रकार भाक्रम से जिनके यश की कथा वेद गाते हैं, सब गुणों की राशि, अति सुन्दर वैकुण्ठवासी लक्ष्मीनाथ, पवित्र, निर्दोष, सुखद, ये था गुण विष्णु के कथन करने में यथासंख्य अलंकार है। सत्य कहेहु गिरि-भव तनु एहा । हठ न छूट छूटइ बरु दोहा ॥ . कनकउ पुनि पषान तैं हाई । जारेहु सहज न परिहर सेाई ॥३॥ आप लोग सच कहते हैं; मेरा यह शरीर पहाड़ से उत्पन्न है, इसी से हठ न छूटेगा चाहे देह छूट जाय। फिर सोना भी तो पत्थर ही से पैदा होता है, वह जलाने पर भी अपना खभाव (क) नहीं त्यागता ॥ पर्वत जड़ है, उससे उपजी वस्तुओं में भी जड़ता का आना स्वाभाविक है। यह व्यङ्ग पाच्या के बराबर ही चमत्कृत होने से तुल्यप्रधान है।