पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १५ तब आपन प्रभाव विस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा। कोपेउ जबहिँ बारिचर-केतू । छन महँ मिटे सकल स्रुति-सेतू ॥३॥ तब अपना प्रभाव फैलाया, सम्पूर्ण संसार को अपने वश में कर लिया। ज्यों ही कामदेव ने क्रोध किया त्यों ही क्षण भर में वेद की सारी मर्यादा मिट गई ॥३॥ ब्रह्मचर्ज ब्रत सब्जम नाना । धीरज धरम ज्ञान बिज्ञाना । सदाचार जप जोग बिरागा । समय बिबेक कटक सब भागा॥१॥ ब्रह्मचर्य, नाना प्रकार के व्रत, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, अप, योग, वैराग्य श्रादि विचार की सब सेना भयभीत होकर भाग गई ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट सज्जुग-महि मुरे। सदग्रन्थ-पर्वत-कन्दरन्हि महँ, जाई तेहि अवसर दुरे ॥ होनिहार का करतार को रखवार जग खरमर परा । दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहँ, कोपि कर धनु-सर धरा ॥३॥ विचार रूपी योद्धा रणभूमि से अपनी सहायक सेना के सहित मुड़ कर भाग चला । उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पहाड़ की कन्दराओं में जा छिपे । संसार में खलबली पड़, गई, लोग कहते हैं-या विधाता ! क्या होनेवाला है और कौन रक्षक है । त्रिलोक विजयी रंतिनाथ के सामने दूसरा मस्तक किसका है, जिसके लिए क्रोध कर के उसने हाथ में धनुष- वाण लिया है ? ॥३॥ शान वैराग्य आदि को हृदयस्थल से हटा कर फेवल पुस्तकों की पंक्तियों में निवास वर्णन 'परिसंख्या अलंकार' है। क्या होनेवाला है ? कौन रक्षक है ? इत्यादि शङ्का वितर्क सवारी भाव है। दो-जे सजीव जग चर अचर, नारि पुरुष अस नाम । ते निज निज मरजाद तजि, अये सकल बस काम ॥ ८ ॥ संसार में जड़ चेतन जितने जीवधारी हैं, जिनकी स्त्री-पुरुष ऐसी संभा है, वे सब अपनी अपनी मर्यादा छोड़ कर काम के वश हो गये ॥४|| चौ०-सब के हृदय मदन अभिलाखा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥ नदी उमगि अम्बुधि कहँ धाई । सङ्गम करहिं तलाव तलाई ॥१॥ सब के मन में काम की इच्छा बलवती हुई, लताओं को देख कर वृक्षों की डालियाँ मुन्ने लगी । नदियाँ उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ी, तलाब-तलइयाँ परस्पर सहम (मिला- जुली ) करते हैं ॥१॥ + ।