पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५३

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रामचरित मानस । १०० बोले कृपासिन्धु वृषकेतू । कहहु अमर आयहु केहि हेतू ॥ कह विधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी । तदपिभगति-बसबिनवउँस्वामी ॥४॥ कृपासागर शिवजी बोले-हे देवताओ ! कहो, किस कारण आये हो? ब्रह्मा ने कहा- हे स्वामिन् ! श्राप अन्तर्यामी (सप जानते) हैं, तोभी प्रभो! मैं भक्ति वश विनती करता हूँ॥५॥ दो०-सकल सुरन्हे के हृदय अस, सङ्कर परम उछाह । निज नयनन्हि देखा चहहिँ, नाथ तुम्हार बिबाह ॥ ८॥ 'हे शङ्करजी ! सम्पूर्ण देवताओं के मन में यह परमोत्साह है। हे नाथ ! वे अपनी आँलो से श्राप का विवाह देखना चाहते हैं | चौ०-यह उत्सव देखिय मरि लोचन । सोह कछु करहु मदन-मद-मोचन ॥ काम जारि रति कहँ बर दीन्हा । कृपासिन्धु यह अतिभल कीन्हा॥१॥ हे कामदेव के घमण्ड को भल करनेवाले! वही कुछ कीजिए जिसमें इस उत्सव को हम लेग आँख भर देखें । हे कृपासागर! कामदेव को जला कर रति को वर दिया, यह आप ने बहुत ही अच्छा किया ॥१॥ सासति करि पुनि करहिँ पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज-सुभाऊ । पारबती तप कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अङ्गीकारा ॥२॥ हे नाथ ! समर्थों का सहज स्वभाव है कि दुर्दशा करने पर फिर दया करते हैं। पार्वती ने बहुत बड़ी तपस्या की है, अब उसको अङ्गीकार कीजिए ॥२॥ सुनि विधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसइ होउ कहा सुख मानी ॥ तब देवन्ह दुन्दुभी बजाई । बरपि सुमन जयजय सुर-साँई ॥३॥ ब्रह्मा की विनती सुन कर और स्वामी की बात समझ कर प्रसन्नता से शिवजी ने कहा-ऐसा ही होगा। तय देवताओं ने नगाड़े वजाये और फूलों की वर्षा कर के कहने लगे- हे देवताओं के स्वामी ! आप की जय हो जय हो ॥३॥ अक्सर जानि सप्तरिषि आये । तुरतहि बिधि गिरि-भवन पठाये ॥ प्रथम गये जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल-सानी ॥४॥ समय जान कर सप्तषि आये, तुरन्त ही ब्रह्मा ने उन्हें हिमवान के घर भेजा। पहले वे वहाँ . गये जहाँ पार्वतीजी थी और छल भरे मीठे वचन बोले ॥४॥ दो-कहा हमार न सुनेहु तब, नारद के उपदेस । अब भी झूठ तुम्हार पन, जारेउ काम महेस ८॥ तब हमारा कहना तुमने नारद के उपदेश के सामने नहीं सुना, अब तुम्हारी प्रतिक्षा मिथ्या हुई, शिवजी ने कासदेव को भस्म कर दिया Mesh