पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १०३ देववधुओं का मुस्कुराना और दुलहिन का अभाव कहने में वर को कुरूपता व्यजित होना व्यक्त है। बिष्नु बिरजि आदि सुर ब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥ सुर-समाज सब भाँति अनूपा । नहिँ बरात दूलह अनुरूपा ॥४॥ विष्णु और ब्रह्मा प्रादि देवता वृन्द सवारियों पर चढ़ चढ़ कर बरात में चले । देवताओं की गोल सब तरह अपूर्व है; किन्तु वर के योग्य बरात नहीं है ॥४॥ दो०-बिष्नु कहा अस बिहँसि तब, बोलि सकल दिसिराज । बिलग बिलग हाइ चलहु सब, निज निज सहित समाज ॥२॥ तब विष्णु ने हँस कर सम्पूर्ण दिक्पालों को बुला कर कहा । सब कोई अपने अपने समाज के सहित अलग अलग चलते जाइये ॥१२॥ चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करइहउ पर पुर जाई । बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने॥१॥ 'भाइयो । दुलहा के समान बरात नहीं है, विराने नगर में चल कर हँसी करोगे ? विष्णु की बात सुन कर देवता मुस्कुराये और अपनी गोल के सहित अलग हो गये ॥१॥ मनहीं मन महेस मुसुकाहीँ । हरि के व्यङ्ग बचन नहिँ जाहीं ॥ अतिप्रिय-बचन सुनत प्रियकरे । भृङ्गिहि-प्रेरि सकल गन टेरे ॥२॥ शिवजी मन ही मन मुस्कुराते हैं कि भगवान की व्यङ्ग भरी बाते नहीं छूटती । प्यार के अत्यन्त प्रिय वचन सुनते ही नन्दी को आक्षा देकर अपने सम्पूर्ण अनुचरों को बुलवाया ॥२॥ सिव अनुसासन सुनि सब आये । प्रभु-पद-जलज सीस तिन्ह नाये । नाना-बाहन नाना-बेखा । बिह से सित्र समाज निज देखा ॥३॥ शिवजी की श्राशा सुन कर सव आये और उन्होंने स्वामी के चरण-कमलों में सिर नवाया। उनकी भाँति भाँति की सवारियों और तरह तरह के वेश थे, अपने समाज को देख कर शिवजी हँसे ॥३॥ शिवजी के हँसने में विष्णु भगवान की व्यङ्गोक्ति का उत्तर व्यजित होना व्यङ्ग है कि वर के अनुरूप बरात हो गई न? अब तो पराये पुर में हँसी न होगी। कोउ मुख-हीन बिपुल-मुख काहू । बिनु-पद-कर कोउ बहु-पद-घाहू ॥ बिपुल-नयन कोउ नयन-बिहीना। रिष्ट-पुष्ट कोउ अति तन खोना ॥४॥ कोई मुख रहित, किसी को बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ पाँव का और किसी के बहुत से चरण तथा भुजाएँ हैं। कोई समूह आँखवाले, किसी के नेत्र ही नहीं हैं, कोई मोटा ताजा और कितने ही शरीर के अत्यन्त दुबले पतले हैं ॥४॥ .