पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५७

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१०४ रामचरित मानस। । हरिगीतिका-छन्द । तन-खीन कोउ अति-पीन पावन, कोउ अपावन गति धरे । झूषन कराल कपाल कर सब, सद्य सोनित तन भरे ॥ खर खान-सुअर-सृगाल-मुख गन, बेष अगनित को गनै जिनिस प्रेत-पिसांच-जोगि-जमाति बरनत नहिँ बन ॥७॥ कोई शरीर का दुपला, कोई अत्यन्त मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र बाल पकड़े है। भयङ्कर गहना पहने हाथ में खोपड़ी लिए ताजा खून सव शरीर में लपेटे है । किसी का मुख गदहे का, कोई कुत्ते; कोई सुअर और कोई सियार के मुखवाला है, उन अनगिनती गणों के रूप को कौन कह सकता है। बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगियों की जमात (गरोह) का वर्णन नहीं करते बनता है ॥७॥ सो-नाचहिँ गावहिं गीत, परम तरङ्गी भूत सब । देखत अति बिपरीत, बोलहिँ बचन विचित्र विधि ॥३॥ वे सब भूत बड़े ही सहरी नाचते और गीत गाते हैं। देखने में उलटे मालूम होते हैं, पर वचन विचित्र प्रकार के वोलते हैं ॥ ६ ॥ शिवजी की वरात वर्णन में हास्यरस की प्रधानता है और गौड़ रूप से अद्भुतरस तथा वीभत्स की भी किश्चित झलक है । शङ्करजी पालम्बन विभाव हैं। उनकी विलक्षण वेष रचना, सर्प-भूषण, जटिल, हरिचर्म और विभूति धारण, अद्भुत गण उद्दीपन विभाव है। उन्हें देख कर सुर, देवाङ्गनाओं का हँसना अनुभाव है, हर्ष सधारी भाव द्वारा हास्य स्थायीभाव पुष्ट होकर रस रूप हुआ है। चौ-जस दूलह तस बनी बराता । कौतुक बिबिध हाहिँ मग जाता। इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥१॥ जैसा वर वैसी ही वरात धनी, रास्ते में जाते हुए तरह तरह के कुतूहल हो रहे हैं । यहाँ हिमाचल ने अत्यन्त अद्भुत मण्डप बनवाया जो वस्त्राना नहीं जा सकता ॥ १ ॥ सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिँ वरनि सिराही । बन सागर सब नदी तलावा । हिमगिरि सब कह नेवत पठावा ॥२॥ संसार में जहाँ तक छोटे बड़े पर्वत हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता, उन सब को और सम्पूर्ण वन, समुद्र, नदी एवम् तालाद सब को हिमवान् ने निमन्त्रित करके वुलवाया ॥ २ ॥ कामरूप सुन्दर तनु धारी । सहित समाज साह बर नारी । आये सकल हिमाचल गेहा । गावहिं मञ्जर सहित सनेहा ॥३॥ : इच्छानुसार सुन्दर शरीर धारण किये अपनी रूपवती स्त्री और मण्डली के सहित शोभायमान सब हिमाचल के घर आये, वे सब स्नेह के साथ माल गान करते हैं ॥३॥ गुटका में गये सकल तुहिनावल गेहा' और 'सहित समाज सहित घर नारी' पाल है।