पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६१

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१०३ रामचरित-मानसे! ची-नारद कर मैं काह बिगारा । भवन मोर जिन्ह बसत उजारा॥ अस उपदेस उमहिं जिन्ह दीन्हा । बोरे बरहि लागि तप कीन्हा ॥१॥ नारद का मैंने क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने वसता हुआ मेरा घर उजाड़ दिया । उन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि पागल वर के लिए उसने तपस्या की ॥१॥ साँचेहु उनके मोह न माया । उदासीन धन धाम न जाया । पर-घर-घालक लाज न भीरा । वाँभ कि जान प्रसव की पीरा ॥२॥ सचमुच उनके (हृदय में) मोह-मया नहीं है. धन, घर और स्त्री नहीं, सय के त्यागी हैं। पराया घर उजाड़ने में उन्हें लाज या डर नहीं है, क्या वन्ध्या स्त्री प्रसव (पालक पैदा होने । की पीड़ा जान सकती है ? (कदापि नहीं ) ॥२॥ जननिहिं विकल बिलोकि भवानी । बोली जुत-बिबेक मृदु बानी । अस विचारि सेाचहि मति माता । सो न दरइ जो रचइ विधाता ॥३॥ माताको ब्याकुल देख कर भवानी ज्ञान से भरोकोमल याणी गेली। हे माता! जो विधाता ने रचा है वह मिट नहीं सकता, ऐसा जान कर सोच मत करो ॥२॥ करम लिखा जौं बाउर नाहू । तौ कत दोष लगाइय काहू 11 तुम्ह सन मिठिहि कि विधि के अङ्का । मातु व्यर्थ जनि लेहु कलङ्का in यदि मेरे प्रारब्ध में औरहा पति लिखा है तो किसी दोष क्यों लगाया जाय ? क्या विधाता के लिखे अङ्क तुमसे मिट सकते हैं ? (कदापि नहीं, इसलिये) हे माता ! व्यर्थ ही कलङ्क मत लेनो ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । जनि लेहु मातु कलङ्क करुना,-परिहरहु अवसर नहीं। दुखसुख जो लिखा लिलार हमरे, जोब जहँ पाउब तही। सुनि उमा बचन बिनीत कोमल, सकल अबला सोचहीं। बहु भाँति विधिहि लगाइ दूषन, नयन बारि बिमाचहीं ॥११॥ हे माता! कलङ्क मत लेनो; विषाद को छोड़ो, इसका अवसर नहीं है। दुःख सुख जो मेरे ललाट में लिखा है, वह जहाँ जाऊँगी वहीं पाऊँगी। पातीजी के नन कोमल बचन सुनकर सब स्त्रियाँ सोचती है । बहुत प्रकार ब्रह्मा के दोष लगा कर आँखों से आँसू बहा रही हैं ॥१९॥ चौरहा वर मिले पर्वतीजी को और दोष पाय बेचारे ब्रह्मा ! कारण कहीं और कार्य कहीं 'प्रथम असहति अलंकार है।