पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६३

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११० रामचरित-मानस । जन्म लेकर अपने स्वामी की प्राप्ति के लिए भीषण तप किया है। ऐसा समझ कर सन्देह छोड़ दो, गिरिजा सदा सर्वदा शङ्कर की प्यारी हैं ।। १२ ।। मैना आदि के मन में शिवजी का विकट रूप देख भ्रम से जो सन्देह दुश्रा था, नारदजी ने सच्ची बात कह कर वह दूर कर दिया। 'भ्रान्त्यापति अलंकार' है। दो०-सुनि नारद के बचन' तब, सब कर मिटा विषाद। छन महँ ब्यापेउ सकल पुर, घर घर यह सम्बाद ECL नब नारदजी की बात सुन कर सत्र का विवाद मिट गया । क्षण भर में यह सम्बाद सारे नगर में घर घर फैल गया | 8 || चौ०-तब मैना हिमवन्त अनन्दे । पुनि पुनि पारवती-पद बन्दे । नारि पुरुष सिसु जुधा सयाने। नगर लोग सब अति हरपाने ॥१॥ तब मैना और हिमवान् ने प्रसन्न होकर गर बार पार्वतीजी के चरणों की वन्दना की। चतुर स्त्री-पुरुष, बालक-जवान, सव नगर के लोग अत्यन्त हर्षित हुए ॥१॥ लगे होन पुर मङ्गल गाना । सजे सघहिँ हाटक-घट नाना । भाँति अनेक अई जेवनारा । सूप-सास्त्र जस किछु व्यवहारा ॥२॥ नगर में मङ्गल गान होने लगा, सब ने अनेक प्रकार के सुवर्ण के कलश सजाये । भौति भौति की रसोइयाँ-जैसा कुछ पाफ-शास्त्र में विधान है-हुई ॥२॥ सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिँ भवन जेहि मातु भवानी ॥ सादर बोले सकल बराती । बिनु बिरचि देव सव जाती ॥३॥ क्या वह ज्योनार वखाना जा सकता है जिस घर में माता पार्वती रहती हैं ? आदरपूर्वक सम्पूर्ण वरात विष्णु, ब्रह्मा और सव जाति के देवताओं को बुलाया ॥ ३ ॥ विविध पाँति बैठी जेवनारा । लगे परोसन निपुन सुआरा ॥ नारि-वृन्द सुर जंवत जानी। लगी देन गारी मृदु बानी ॥४॥ बहुत सी पङ्गत बैंठी, चतुर रसोईदार भोजन परोसने लगे। स्त्रियाँ देवताओं को भोजन करते जान कर मधुर वाणी से गाली देने लगी ॥४॥ हरिगीतिका- छुन्द। गारी मधुर सुर देहिँ सुन्दरि, व्यङ्ग बचन सुनावहीँ। भोजन करहि सुर अति बिलम्ब, बिनोद सुनि सचु पावहाँ । जैवत जो बढ़े उ अनन्द सो, मुख कोटिहू न परइ कह्यो । अंचवाइ दीन्हे पान गवने, बास जहँ जाको रह्यो ॥१३॥ सुन्दरियाँ मोठे स्वर से गाली देती है और व्यह-पूर्ण वचन सुनाती है । देवता हंसी दिल्लगी सुन कर प्रसन्न हो रहे हैं और बड़ी देर में (धीरे धीरे) भोजन करते हैं। जैघन करते . .