पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १११ समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुख से भी नहीं कहा जा सकता। सब के हाथ मुँह धुलवा कर पान दिये, फिर जिसका जहाँ डेरा था वहाँ वह चला गया ॥ १३ ॥ गाली दोष रूप है, किन्तु विवाहोत्सव में वही गुण रूप प्रिय लगना तथा उससे प्रसन्न होना 'अनुज्ञा अलंकार है। दो-बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहँ, लगन सुनाई आइ । समय बिलोकि बिबाह कर, पठये देव बुलाइ IEE फिर मुनियों ने श्राफर हिमवान को लश का मुहूर्त सुनाया। विवाह का समय देख कर उन्होंने देवताओं को बुलौभा भेजा ॥8॥ चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जयोचित आसन दीन्हे ॥ बेदी बेद-विधान सँवारी । सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥१॥ सम्पूर्ण देवताओं को प्रादर से बुला लिया और सब को यथायोग्य श्रासन दिया । वेद की रीति से वेदी बनाई गई, सुन्दर स्त्रियाँ श्रेष्ठ मङ्गल गान करती हैं ॥ १ ॥ सिंहासन अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिचित्र बनावा । बैठे सिव विप्रन्ह सिर नाई । हृदय सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥२॥ अत्यन्त दिव्य सुहावने सिंहासन पर-जिसकी विलक्षण वनावट वर्णन नहीं की जा सकती, शिवजी ब्राह्मणों को मस्तक नवा कर और हृदय में अपने स्वामी रघुनाथजी का स्मरण करके बैठ गये ॥२॥ बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई । करि सिङ्गार सखी लेइ आई ॥ देखत रूप सकल. सुर मेाहे । बरनइ छबि अस जग कबि को हे ॥३॥ फिर मुनीश्वरों ने उमा को बुलवाया, शहार करके सखी ले श्रोई । रूप देखते ही सब देवता मोहित हो गये, संसार में ऐसा कौन कवि है जो उस शोभा का वर्णन करेगा ? (कोई नहीं) ॥३॥ जगदम्बिका जानि भव-भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥ सुन्दरता-मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहु बदन बखानी ॥ जगन्माता और शिवजी की भाऱ्यां समझ देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। पर्वतीजी सुन्दरता की हद हैं, करोड़ों मुखों से बखानी नहीं जा सकतीं ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । कोटिहु बदन नहिँ बनइ बरनत, जग-जननि-सामा महा। सकुचहिँ कहत खुति सेष सारद, मन्द-मति तुलसी कहा ॥