पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६५

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. । रामचरित मानस । ११२ छबि-खानि मातु भवानि गवनी, मध्य मंडप सिव जहाँ। अवलोकि सकइ न सकुच पति-पद, कमल मन मधुकर तहाँ ॥१४॥ जगज्जननी को महान् शोमा करोड़ों मुखों से नहीं बखानी जा सकती। सरस्वती, वेद । और शेषजी कहते हुए सकुचाते हैं, उसको नीव-शुद्धि तुलसी ने कहा है अथवा नीच बुद्धि तुलसी क्या चीज़ है ? छवि की खानि माता पार्वतीजी मण्डप में, जहाँ शिवजी हैं, वहाँ गई । लज्जा से पति के चरण कमलों को देख नहीं सकती, परन्तु मन रूपी भ्रमर वहाँ लुन्ध हो गया है ॥१४॥ दो-मुनि अनुसासन गनपतिहि, पूजेउ सम्मु-भवानि । कोउ सुनि संसय करइ जनि, सुर अनादि जिय जानि ॥१०॥ शिव-पार्वती ने मुनियों की प्राज्ञा से गणेशजी का पूजन किया। यह सुन कर गणपति को ) अनादि देव जी में जान कर कोई सन्देह न करे ॥१०॥ विवाह भी हुआ नहीं; किन्तु गणेश-पूजन कराने में भाविक अलंकार' है चौ०-जसि बिबाह के बिधि चुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई। गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपी जानि भवानी १ विवाह की जैसी रीति वेदों ने गाई है, महामुनियों ने वे सब करवाई। पर्यतराज ने कुश और कन्या का हाथ हाथ में लेकर भवानी जान कर भव को अर्पण की ॥१॥ पानि-ग्रहन जब कीन्ह महेसा । हिय हर तब सकल सुरेसा ॥ बेद मन्त्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय सङ्कर सुर करहीं ॥२॥ जव शिवजी ने पाणिग्रहण किया तब इन्द्रादि सब देवता मन में प्रसन्न हुए। मुनियर वेदमन्त्र पढ़ते हैं और देवता शङ्करजी की जय जयकार करते हैं ॥२॥ बाजहिँ बाजन विधिध बिधानो । सुमन वृष्टि नभ भइ विधि नाना । हर गिरिजा कर भयेउ बिधाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥३॥ अनेक प्रकार के वांजे बजते हैं, आकाश से नाना भाँति के फूलों की वर्षा हुई। शिव पार्वती का विवाद हुआ, जिसका उत्साह सम्पूर्ण जगत् में भरपूर छा रहा है ॥३॥ दासी दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि अन्न कनक-भाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥४॥ विभागा। बस्तु सेवक, सेवकिनी, घोड़ा, रथ, हाथी, गैया, वस्त्र और रत्नादि वस्तुएँ अलग अलग। सुवर्ण के बरतनों में अन्न भर भर गाड़ियों में लदवा कर दहेज दिया जो बखाना नहीं जा सकता