पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६७

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। रामचरित मानस । पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न वरना ॥ सब नारिन्ह मिलि मैं टि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥४॥ घार वार भेटती हैं और पाँव पकड़ कर सिर रखती हैं, अतिशय प्रीति का वर्णन कुछ नहीं किया जा सकता । सब स्त्रियों से मिल भेट कर फिर पार्वतीजी जाकर माता की छाती से लिपट गई ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द। जननिहि बहुरि मिलि. चली उचित असीस सब काहू दई। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब, सखी लै सिव पहि गई । जाचक सकल सन्तोषि सङ्कर, उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान ना बाजे भले ॥१६॥ फिर माता से मिल कर चलीं, सब किसी ने उचित पाशीर्वाद दिया । बार बार माता की ओर निहार रही हैं, तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गई। सब याचको को सन्तुष्ट करके पार्वती के समेत शिवजी अपने घर चले । सब देवता प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे और आकाश में सुन्दर दुन्दुभी आदि बाजे वा रहे हैं ॥ १६ ॥ दो०-चले सङ्ग हिमवन्त तब, पहुँचावन अति हेतु । बिबिध भाँति परितोष करि, बिदा कीन्हि वृषकेतु ॥१०२॥ तब हिमवान् अत्यन्त प्रीति से साथ में पहुचाने के लिए चले। बहुत तरह से उन्हें समझा- बुझा कर शिवजी ने बिदा किया ॥ १०२॥ चौ-तुरत भवन आये गिरिराई । सकल सैल सर लिये बोलाई । आदर दान बिनय बहु माना । सब कर विदा कीन्ह हिमवाना॥१॥ पर्वतराज तुरन्त घर आय और सम्पूर्ण शैल सरोवरों को बुला लिया । आदर, दान और विनती से हिमवान ने सव को.बहुत सत्कार कर बिदा किया ॥१॥ जबहिं सम्भु कैलासहि आये । सुर सब निज निज लोक सिधाये ॥ जगत मातु-पितु सम्भु-भवानी । तेहि सिङ्गार न कहउँ बखानी ॥२॥ जयं शिवजी कैलास पर आये तब देवता सब अपने अपने लोक को चल दिये । शिव. पार्वती जगत के माता-पिता हैं, इसलिए उनका शृङ्गार बखान कर नहीं कहता हूँ ॥२॥ करहि बिबिध बिधि भोग बिलासा। नन्ह समेत बसहिं कैलासा । हर-गिरिजा बिहार नित नयऊ ।एहि विधिबिपुल काल चलि गयऊ ॥३॥ अनेक प्रकार के भोग विलास करते हैं और सेवकों के सहित कैलास पर निवास करते हैं। शिव-पार्वती का नित्य नया विहार हो रहा है, इस तरह बहुत समय बीत गया ॥३॥