पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६९

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रामचरित-मानस । सिव-पद-कमल जिन्हहिँ रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सुहाही ॥ बिनु छल विस्वनाथ-पद नेहू । रामभगत कर लच्छन एहू ॥३॥ जिनकी प्रीति शिवजी के चरण-कमलों में नहीं है, वे रामवन्द्रजो को स्वप्न में भी नहीं अच्छे लगते। विश्वनाथजी के चरणों में विना छल के स्नेह हो; यही राम भक्त का लक्षण है ॥३॥ सिव सम को रघुपति-व्रत-धारी। चिनु अघ तजी सत्ती असि नारी ॥ पन करि रघुपति-भगति दिढ़ाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ शिवजी के समान रघुनाथ जी का व्रत धारण करनेवाला कौन है ? जिन्होंने सती ऐसी खी को बिना दुःख के त्याग दिया! प्रतिक्षा करके रघुनाथजी की भक्ति को दृढ़ किया, हे भाई ! फिर शिवजी के समान रामचन्द्रजी को कौन प्यारा होगा? ॥४॥ शिवजी के व्रत धारण का कारण युक्ति से समर्थन करना कि सती जैसी स्त्री को त्याग दिया; किन्तु भक्ति को दृढ़ता से ग्रहण किया 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। 'विनु अघ' में बड़ी उलझन है। यदि यह अर्थ किया जाय कि विना पाप के सती ऐसी खी को त्याग दिया तो शिवजी पर दोषारोपण होता है, क्योंकि निरपराध पतिव्रता को त्यागना घोर अन्याय है। फिर अन्य से विरोध पड़ता है, नारदजी ने स्पष्ट कह दिया है कि 'सिय वेष सती जो कीन्ह तेहि अपराध शङ्कर परिहरी' । इससे सती का अपराधिनी होना सिद्ध है। 'अघ' शब्द के तीन अर्थ हैं, पाप था अपराध, दुःख और व्यसन । यहाँ तात्पर्य दुःख से है, अपराध या पाप से नहीं । हाँ-यह शङ्का हो सकती है कि उत्तरकाण्ड में स्वयम् शिवजी ने कहा है "तब अति सोच भयेउ मन मारे । दुखी भयउँ वियोग प्रिय तारे" इस वाक्य से पूर्वोक अर्थ भी व्यर्थ होगा? पर ऐसा नहीं है, सती के प्रति शिवजी का स्नेह पनीभाव और भक्तिभाव दो प्रकार का था। पत्नीभाव से वियोग का दुःख नहीं हुआ; किन्तु भक्तिभाव से दुखी हुए, क्योंकि हरि- कीर्तन के सत्सङ्ग में बाधा पड़ गई । इससे प्रथम अर्थ जो किया गया है, वही ठीक है। दो-प्रथमहिं कहि मैं सिव चरित, बूता मरम र तुम्हार सुचि सेवक तुम्ह राम के, रहित समस्त विकार ॥१४॥ इसी से पहले मैं ने शिवजी का चरित्र कह कर श्राप के भेद को समझ लिया । श्राप सम्पूर्ण दोषो से रहित रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हैं ॥१०४॥ चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सोला । कहउँ सुनहु अब रघुपति-लीला ॥ सुनु मुनि आजु समागम तोरे । कहि न जाइ जस सुख मन मारे ॥१॥ मैं ने आप की गुणशीलता जान ली, अब रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनिए । हे. मुनि ! सुनिए, श्राप के सम्मिलन से आज मेरे मन में जो भानन्द हुआ है वह कहा नहीं जा 1 सकता || -