पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७०

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ११७ रामचरित अति अमित मुनीसा । कहि न सकहिं सतकोटि अहीसा ॥ तदपि जथा सत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनु-पानी ॥२॥ हे मुनीश्वर । रामचन्द्रजी का चरित्र अतिशय अनन्त है, उसको करोड़ शेषनाग नहीं कह सकते। तो भी जैसा मैंने सुना है वैसा हाथ में धनुष लिए वाणी के खामी प्रभु रामचन्द्रजी को स्मरण कर के बखान कर कहूँगा ॥२॥ सारद दारु-नारि-सम स्वामी । राम-सूत्रधर अन्तरजामी॥ जेहि पर कृपा करहिं जन जानी। कबि-उर-अजिर नचावहि बानी ॥३॥ सरस्वती काठ की स्त्री ( कठपुतली ) के समान है और अन्तर्यामी स्वामी रोमचन्द्रजी सूत्रधर ( तागा पकड़ कर उसे नचानेवाले ) हैं। जिसको अपना दास जान कर कृपा करते हैं उस के हृदय रूपी आँगन में वाणी को नचाते हैं ॥३॥ सरस्वती और कठपुतली, रामचन्द्र और सूत्रधर, कवि का हृदय और नाच का मैदान परस्पर उपमेय उपमान हैं । ऊपर प्रभु रामचन्द्रजी को गिरोपति कह पाये हैं युक्ति से उस अर्थ का समर्थन करने में काव्यलिङ्ग अलंकार है। प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ विषद तासु गुन गाथा ॥ परम रम्य गिरिबर कैलासू । सदा जहाँ सिव-उमा निवासू ॥४॥ उन्हीं कृपालु रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ जिनके गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। पर्वतश्रेष्ठ कैलास अत्युत्तम रमणीय है जहाँ शिव-पार्वती सदा निवास करते हैं ॥४॥ दो०-सिद्ध तपोधन जोगि जन, सुर किन्नर मुनि बन्द । बसहि तहाँ सुकृती सकल, सेवहि सिव सुखकन्द ॥१०॥ वहाँ सिद्ध, तपस्वी, योगीजन, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह सब पुण्यात्मा निवास करते हैं, वे सब श्रानन्द के मूल शिवजी की सेवा करते हैं ॥ १०५ ॥ चौ०-हरि-हर-विमुख धरम रति नाही । ते नर तह सपनेहुँ नहिं जाहौँ । तेहि गिरि पर बट बिटप. विसाला । नित नूतन सुन्दर सब काला ॥१॥ जो विष्णु और शिवजी से विमुख हैं तथा जिनको प्रीति धर्म में नहीं है, वे मनुष्य स्वप्न में भी वहाँ नहीं जाते। उस पर्वत पर विशाल बड़ का वृक्ष है जो सब समय नित्य नया सुहा. वना रहता है॥१॥ त्रिविध समीर सुसीतल छाया । सिव-बिस्राम बिटप सुति गाया ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुख भयऊ ॥२॥ वेद कहते हैं कि तीनों प्रकार पवन की गति और सुन्दर शीतल छाँह शिवजी के विश्राम वृक्ष के नीचे रहती है। प्रभु शङ्करजी एक बार उसके नीचे गये और वृक्ष को देख कर हृदय में बहुत ही प्रसन्न हुए ॥२॥