पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७२

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. प्रथम सोपान, बालकाण्ड । पति-हिय-हेतु अधिक मन मानी। बिहँ सि उमा बोली मृदु बानी ॥ कथा जो सकल-लोक-हितकारी। सोइ पूछन चह सैल-कुमारी ॥३॥ स्वामी के हृदय में अपने ऊपर अधिक स्नेह मन मैं समझ कर पार्वतीजी हँस कर कोमल बानी बोली । जो समस्त लोकों की कल्याणकारिणी कथा है, वही पर्वती राज की कन्या पूचना चाहती हैं ॥३॥ पर्वत परोपकारी होते हैं, तव पर्वत की कन्या का लोकोपकारिणी होना. अर्थात् कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। 'शैलकुमारी' संज्ञासाभिप्राय होने से परिकराङ्कुर की ध्वनि व्यजित होती है । सभा की प्रति में अधिक शानुमानी' पाठ है। बिस्वनाथ मम-नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥ घर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिँ · पद-पङ्कज-सेवा ॥४ है विश्वनाथ, मेरे स्वामी, निपुर के बैरी ! श्राप की महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चेतन, जड़, नाग, मनुष्य और देवता सब आप के वरण कमलों की सेवा करते हैं ॥४॥ दोष-प्रभु समरथ सरबज्ञ सिव, सकल कला-गुन धाम । जोग-ज्ञान-बैराग्य-निधि, प्रनत-कलपतरु नाम ॥१०७॥ श्राप प्रभु, समर्थ, सर्वश, कल्याण-रूप, सम्पूर्ण कला (हुनर) और गुणों के स्थान है। योग, झान, वैराक्ष के भण्डार और आपका नाम भजनों के लिए कल्पवृक्ष है ॥१०॥ चौए-जौँ मा पर प्रसन्न सुखरासी । जानिय सत्य माहि निज-दासी । तौ प्रभु हरहु मोर अज्ञानी । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥१॥ हे सुख के राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच सुझे अपनी सेवकिन जानते हैं तो हे स्वामिन् ! मेरी प्राज्ञनता को रघुनाथजी की नाना तरह की कथा कह कर दूर कीजिए वक्रोक्ति अलंकार॥१॥ जासु भवन सुरतरु तर होई । सह कि दरिद्र-जनित-दुख ‘साई । ससि-भूषन अस हृदय बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥२॥ जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, क्या वह दरिद्रता से उत्पन्न दुःख सहन कर सकता है ? (कदापि नहीं ) हे चन्द्रभूषण नाथ ! ऐसा मन में विचार कर मेरी बुद्धि का भारी भ्रम दूर कीजिए ॥२॥ प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहँ ब्रह्म अनादी ॥ सेष सारदा बेद पुराना । सकल करहिँ रघुपति-गुन-गाना ॥३॥ है प्रभो !जो. सम्यकज्ञान के वक्ता मुनि हैं, वे रामचन्द्रजी को अनादिब्रह्म कहते हैं। शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सब रघुनाथजी के गुणों का गान करते हैं ॥३॥