पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७३

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॥ १२० रामचरित मानस । तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनन-अराती अलख-गति कोई ॥ राम सो अवध-पति-सुत साई । की अज अगुन हे काम के शत्रु ! फिर दिनरात श्रादर के साथ श्रापभी राम राम जपते हैं। वह राम वही अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं कि कोई अप्रत्यक्ष, निपुण और अजन्में (कभी शरीर न धारण करनेवाले ) हैं ॥४॥ दो०-जौं नृप-तनय त ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति मोरि । देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मारि ॥१०॥ यदि राजपुत्र हैं तो वे ब्रह्म कैसे हो सकते हैं ? जिनकी बुद्धि स्त्रो के वियोग से वायली हुई थी, उनका चरित्र देख कर और महिमा सुन कर मेरी बुद्धि बड़े भ्रम में पड़ी है ॥१०॥ चौ०-जौँ अनीह व्यापक बिभु कोज । कहहु बुझाइ नाथ मोहि सेज ॥ अज्ञजानि रिस उरजनिधरहू । जेहि विधि मोह मिटइ सोइ करहू॥१॥ यदि निस्पृह व्यापक ब्रह्म कोई दूसरा है तो हे नाथ ! वह भी मुझे समझा कर कहिए। नासमझ जान कर मन में क्रोध न लाइये, जिस तरह मेरा अशान मिटे वहीं कीजिए ॥१॥ मैं बन दीख राम प्रभुताई । अति-भय-विकल न तुम्हहिँ सुनाई ॥ तदपि मलिन मनबोधन आवा । सा फल भली भाँति हम पावा ॥२॥ मैं ने रामचन्द्रजी की प्रभुता बनमें देखो, पर अत्यन्त भयसे व्याकुल होकर आपको नहीं सुनाया। तो भी मेरे पापी मन को शान न हुआ, उसका फल हमने भली भाँति पाया ॥२॥ अजहूँ कछु संसय मन मोरे । करहु कृपा विनवउँ कर जोरे ॥ प्रअ तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥३॥ अब भी मेरे मन में कुछ सन्देह है, मैं हाथ जोड़ कर विनती करती है, कृपा कीजिए। तव स्वामी ने मुझे बहुत तरह से समझाया था, हे नाथ ! वह समझ कर क्रोध न कीजिए ॥३॥ तब कर अस विमाह अब नाहीं । राम-क्रथा पर रुचि मन माहीं। कहहु पुनीत राम-गुन-गाथा । भुजगराज-भूषन सुर-नाथा ॥ ४॥ तव के ऐसा अज्ञान अव नहीं है, मन में रामकथा में रुचि है। हे शेषनाग के भूषण धारण करनेवाले देवताओं के मालिक! रामचन्द्रजी के पवित्र गुणों की कथा कहिए ॥४॥ दो-बन्दउँ पद धरि धरनि सिर, विनय करउँ कर जोरि । बरनहु रघुबर-बिसद-जस, सुति-सिद्धान्त निचोरि ॥१०॥ मैं धरती पर मस्तक रख आप के चरणों की वन्दना कर हाथ जोड़ विनती करती हूँ । वेद का सिद्धान्त निचोड़ कर रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए ॥१६॥ ।