पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७८

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १२५ 'प्रश्न शब्द स्त्रीलिङ्ग मान कर मूल में प्रयोग हुआ है। जैसा कि पीछे १११ वे दोहे के

ऊपर (पहले ) वाली चौपाई में है। एक बात नहि माहि सुहानी । जदपि 'मोह-बस कहेहु भवानी ॥ तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि खुति गाव धरहिँ मुनिध्याना॥४॥ हे भवानी ! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि तुमने प्रधान के वश होकर कही है। जो यह कहा कि जिनको वेद गाते हैं और, मुनि ध्यान धरते हैं, वे रामचन्द्र कोई दूसरे हैं ॥ ४॥ पहले शिवजी कह पाये हैं कि हे पार्वती ! मेरे विचार से तुम्हारे मन में शोक, मोह, सन्देह, भ्रम कुछ नहीं है और तुम्हारे प्रश्न सुखदायक, सुहाक्ने, सन्त-सम्मत, मुझे प्रिय लगनेवाले हैं। फिर अपनी ही कही हुई बात को समझ कर निषेध करते हुए दूसरी बात कहना कि मोहवश ऐसा कहती हो यह कहनूत मुझे प्रिय नहीं लगी 'उक्ताप अलंकार' है। दो०-कहहिँ सुनहिँ अस अधम नर, असे जे माह पिसाच । पाखंडी हरि-पद-बिमुख, जानहि झूठ न साँच ॥१९४॥ जो अधम मनुष्य अज्ञान रूपी पिशाच से ग्रसित हैं ऐसा वेही कहते और सुनते हैं । भगवान् के पद से विमुख, पाखण्डी जो झूठ सच जानते ही नहीं ॥ ११४ ॥ धौल-अज्ञ अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर-मन लागी॥ लम्पद कपटी कुटिल बिसेखी। सपनेहुँ सन्त-सभा नहिँ देखी ॥१॥ अशानी, मूर्ख, अन्धे और भाग्यहीन जिनके मन रूपी दर्पण में विषय रूपी काई (मैल) लगी है। व्यभिचारी, धोखेबाज़ और बड़े ही दुष्ट हैं, जिन्होंने स्वप्न में भी सन्तों की सभा नहीं देखी ॥१॥ कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्हहिँ न सूझ लाभ नहि हानी ॥ मुकुर मलिन अरु नयन बिहीनो । राम-रूप देखहिँ किमि दीना ॥२॥ वे वेद-विरुद्ध बाते कहते हैं जिनको न लाभ सूझता है न हानि । दर्पण मैला और बाँस्त्र से रहित (अन्धे ) हैं वे गरीब रामचन्द्रजी के रूप को कैसे देख सकते हैं ? ॥२॥ जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिँ कल्पित बचन अनेका ॥ हरि-माया-बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहतकटु अघटित नाहीं ॥३॥ जिनको निगुण और सगुण का ज्ञान नहीं है, जो अनेक तरह की बनावटी चाते बकते हैं। भगवान को माया के अधीन होकर संसार में भ्रमते हैं, उन्हें कुछ भी कहना असम्भव नही है ॥३॥