पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१८१

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. रामचरित मानस । १२८ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । भायाधीस ज्ञान-गुन-धामू॥ जासु सत्यता तँ जड़ माया। भास सत्य इव माह सहाया ॥ १ ॥ जगत् प्रकाश्य है और माया के स्वामी, ज्ञानगुण के धाम रामचंद्रजी प्रकाशक हैं । जिनकी सचाई से मोह की सहायता पा कर अचेतन माया सत्य के समान भासित होती है | प्रकाश-घाम और प्रकाशक सूर्य । रामचन्द्रजी सूर्य के समान हैं और संसार धूप के समान है। इसमें दृष्टान्तोपमा का भाव है। दा-रजत सीप. महँ भास जिमि, जथा भानु-कर-वारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सेा, भ्रम न सकइ कोउ दारि ॥११॥ जैसे सीपी में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की झलक, यद्यपि तीनों कोल में झूठ है तथापि उस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता (देखनेवालों को भ्रम हो ही जाता है) ॥११७॥ चौ०-एहि बिधि जगहरि आस्त्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई ॥ जौँ सपने सिर काटइ कोई । बिनु जागे न दूरि दुख होई ॥१॥ इस तरह संसार भगवान के सहारे अवस्थित है, यद्यपि है झूट, पर दुःख देता है । यदि स्वप्न में कोई सिर काट ले तो विना जागे वह दुःख दूर नहीं होता ॥३॥ जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सेाइ कृपालु रघुराई । आदि अन्त कोउ जासु न पावा, । मति अनुमान निगम अस गावा ॥२॥ हे गिरिजा! जिनकी कृपा से यह भ्रम मिट जाता है, वेही कृपालु रघुनाथ जी हैं। जिनके श्रादि अन्त को किसी ने नहीं जान पाया, अपनी बुद्धि से अनुमान कर वेद ऐसा गाते हैं ॥२॥ बिनु पद चलइ सुनइ बिनु कानां । कर विनु करम करइ विधि नाना। आनन रहित सकल-रस-भोगी । बिनु बानी वकता बड़ जोगी ॥३॥ वह बिना पाँव के चलता है, विना कान के सुनता है और विना हाथ के नाना तरह के . कर्म करता है । मुख्न नहीं है पर सम्पूर्ण रसों को भोगता है और विना वाणी के बड़ा योग्य बोलनेवाला है ॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ ब्रान विनु बास असेखा। असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिबरनी ॥४॥ विना शरीर के स्पर्श करता है, बिना नेत्र के देखता है और बिना नाक के अपार सुगन्ध लेता है। सब प्रकार की अलौकिक ऐसी करनी है, जिसकी महिमा वर्णन नहीं की जा सकती ॥४॥ कारण के न रहते कार्य का सिद्ध होना अर्थात् विना पाँध के चलना, बिना कान के सुनना, बिना नाक के गन्ध लेना, बिना शरीर के छूना विना मुख के रसे का स्वाद लेना, बिना जीभ के बोलना आदि 'प्रथम विभावना अलंकार' है।