पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१८२

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प्रथम सोपान,बालकाण्ड । १२६ दो०--जेहि इमि गावहिं वेद बुध, जाहि धरहिँ मुनि ध्यान । साइ दसरथ-सुत भगत-हित, कोसलपति-भगवान ॥११॥ जिनको वेद और विद्वान इस तरह कहते हैं और जिनका ध्यान मुनि लोग धरते हैं; वेही दशरथ के पुत्र, भक्कों के हितकारी, अयोध्या के राजा भगवान् हैं ॥११॥ चौ०-कासी मरत जन्तु अवलोकी । जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अन्तरजामी ॥१॥ काशी में जीवों को मरते देख कर जिनके नाम के बल से मैं उन्हें शोक रहित कर देता हूँ। वही, जड़चेतन के खामी, सब के हृदय की बात जाननेवाले प्रभु रधुनाथजी हैं ॥१॥ बिसहु जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित्त अघ दहहीं । सादर सुमिरन जे नर करही। भव-बारिधि गो-पद इव तरहीं ॥२॥ जिनका नाम बेबसी में भी मनुष्य कहते हैं, उनके अनेक जन्म के किए पाप जल जाते हैं। जो नर श्रादर-पूर्वक स्मरण करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गाय के खुर के समान पार कर जाते हैं ॥२॥ राम सा परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तब बानी ॥ अस संसय नित उर माहीं । ज्ञान विरांग सकल गुन जाहीं ॥३॥ हे भवानी ! वेही परमात्मारामचन्द्रजी हैं, उनके विषय में तुम्हारे भ्रम के बचन बहुत ही अनुचित हैं । ऐसा सन्देह मन में लाते ही शान, वैराग्य और सम्पूर्ण गुण भाग जाते हैं ॥ ३ ॥ सुनि सिव के सम-भञ्जन-बचना। मिटि गइ सब कुतरक कै रचनो । भइ रघुपति-पद प्रीति प्रतीती । दारुन असम्भावना बीती ॥ ४ ॥ शिवजी के भ्रम-नाशक बचनों को सुन कर सब कुतों की सृष्टि मिट गई। रधुनाथजी के चरणों में विश्वास एवम् प्रीति हुई और भीषण अनहोनापन (रामचन्द्र ईश्वर हैं या नहीं ऐसा कुतर्क मन से) जाता रहा ॥४॥ दो०-पुनि पुनि प्रभु-पद कमल गहि, जोरि पङ्करुह पानि । बोली गिरिजा बचन बर, मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ १९६ ॥ बार बार खामी के चरण-कमलों को पकड़ कर और कर-कमलों को जोड़ कर पार्वतीजी प्रेम रस में सनी हुई सुन्दर वाणी बोली ॥११॥ पार्वतीजी के हृदय में ईश्वर (रामचन्द्रजी) विषयक रति स्थायीभाव है। रघुनाथजी की अलौकिक शक्ति, महिमा, गुण, स्वभावादि सुन कर उद्दीपित हो, मति, हर्षादि सञ्चारी भावों द्वारा बढ़ कर हरिकथा सुनने के लिए पार बार स्वामी के पाँव पड़ना, हाथ जोड़ना अनुभावों हारा व्यक्त इला है।