पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१८३

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प्रथम जो मैं रामचरित मानस । १३० चौ०-ससि-कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदात प मारी। तुम्ह कृपाल मम संसय हरेऊ । राम-सरूपजानि मेाहि परेऊ ॥१॥ चन्द्रमा की किरणों के समान आप की वाणी को सुन कर मेरा अशान रूपी शरदऋतु का भारी ताप मिट गया । हे कृपालु ! आपने मेरे सन्देह को हर लिया, पर मुझे रामचन्दती का यथार्थ रूप जान पड़ा शा. नाथ कृपा अब गयउ विषादा । सुखी भइउँ प्रभु-चरन-प्रसादा । अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड़नारि अयानी ॥२॥ हे नाथ ! अब आप की कृपा से मेरा खेद जाता रहा, मैं स्वामी के चरणों के प्रसाद से सुखी हुई । अब मुझको अपनी दासी जान कर (दया कीजिए) यद्यपि स्त्री सहज ही मूर्ख और नासमझ होती हैं ॥२॥ पार्वतीजी अपनी लघुता प्रकट कर स्वामी की कृपा सम्पादित करना चाहती हैं। यह विवक्षित वाच्य ध्वनि है। पूछा सोइ कहहू । जाँ मो पर प्रसन्न प्रअ अहहू ॥ राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी । सर्व रहित सब उर-पुर वासी ॥३॥ हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो पहले जो मैं ने पूछा है उसे कहिए । रामचन्द्रजी तो ब्रह्म, ज्ञानमय, अविनासी, सब से अलग और सब के हृदय रूपी.नगर में निवास करने वाले हैं | नोथ धरेउ नर तनु केहि हेतू । मोहि समुझाइ कहहु चुपकेतू ॥ उमा बचन सुनि परम बिनीता । रोम कथा पर प्रीति पुनीता ॥४॥ हे नाथ! आप धर्म के पताका है, मुझे समझा कर कहिए कि उन्होंने किस कारण मनुष्य का शरीर धारण किया ? इस तरह अत्यन्त नम्र वचन पार्वतीजी के सुन कर शिवजी ने जान लिया कि इनकी गमचन्द्रजी की कथा पर पवित्र प्रीति है || दो०-हिय हरणे कामारि तब, सङ्कर सहज सुजान । बहु विधि उमहिँ प्रसंसि पुनि, बोले कृपानिधान । तव सहज सुजान कामदेव के बैरी शङ्करजी हृदय में प्रसन्न हुए। कृपानिधान शिवजी बहुत तरह पार्वतीजी की बड़ाई कर के फिर बोले । से-सुनु सुभ-कथा भवानि, रामचरितमानस बिमल । कहा भुसुंडि बखानि, सुना बिहग-नायक गरुड़ । हे भवानी ! तुम कल्याणकारी रामचरितमानस की .निर्मल कथा सुनो (इस कथा को) ॥ नागभुशुण्ड ने वखान कर कहा और पक्षिराज गरुड़ ने सुना था।