पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१८९

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. भव भजन १३४ रामचरित मानस । कीन्हा । कारन कवन साप मुनि दीन्हा । का अपराध रमापति यह प्रसङ्ग माहि कहहु पुरारी । मुनि मन माहं आचरज भारी ॥ कौन सा कारण है कि मुनि ने शाप दिया ? लक्ष्मीकान्त ने उनका क्या अपराध किया त्था १ हे त्रिपुरारि ! नारद मुनि के मन में मोह होना बड़ा आश्चर्य है, यह कथा मुझ से कहिए ॥४॥ दो-बोले बिहँसि महेस तब, ज्ञानी मूढ़ न कोइ। जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ । तब शिवजी हँस कर बोले कि कोई शानी मूर्ख नहीं है । रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, उस क्षण वह वैसा हो जाता है। सो०-कहउँ राम-गुन.गाथ, भरद्वाज सादर सुनहु । रघुनाथ, अजुः तुलसी तजि मान मद ॥१२४॥ याज्ञवल्क्यमुनि कहते हैं-हे भरद्वाजजी ! मैं रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ। आप श्रादर-पूर्वक सुनिए । तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुनाथजी संसार भय को चूर चूर करने वाले हैं, तू अभिमान और मतवालापन छोड़ कर उनका भजन कर ॥१२॥ कविजी अपने मन को उपदेश देते हैं-हे तुलसी ! मानमद छोड़ कर रधुनाथजी को भजो जो संसार के नसानेवाले हैं। इस वाश्य में गूढोक्ति की ध्वनि व्यजित होती है, क्योंकि अपने प्रति उद्देश्य कर के यह उपदेश जगत् के लिए है। चौ०-हिम गिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥ आस्त्रम् परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषिमन अतिभावा।। हिमालय पर्वत की एक अत्यन्त पवित्र गुफा जिसके समीप सुहावनी गहाजी बह रही है । (उस स्थान में) अतिशय सुन्दर पुनीत आश्रम, देख कर नारदजी के मन में बहुत ही सुहाया ॥१॥ निरखि सैल सरि बिपिन विभागा। भयउ रमापति-पद अनुरागा ॥ सुमिरत हरिहि साप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी ॥२॥ पर्वत, नदी और वन की शोभा अलग अलग देख कर लक्ष्मीनाथ के चरणों में प्रेम उत्पन्न हुआ। भगवान् का स्मरण करने लगे और शाप की गति रुक गई, स्वाभाविक निर्मल मन से समाधि लगी॥२॥ दक्ष ने नारदजी को शाप दिया था कि तुम दो दण्ड से अधिक किसी एक स्थान में न ठहर सकोगे, सदा प्रत्येक लोकों में घूमते ही रहांगे । शुद्ध मन से प्रीति-पूर्वक भगवान् का स्मरण करते ही उस शापं की रुकावट हो गई।