पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९

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भूतपूर्व सरस्वती सम्पादक पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी की सम्मति । रामायण का यह संस्करण बहुत अच्छा निकला। टीका खूब समझ बूझ कर लिखी गयी है। ऐसी कितनी ही बात इसमें हैं जो अन्य टीकाओं में नहीं पाई जाती । भनेक जगह मैंने टीका पढ़ी और मुझे पसन्द आई । प्रस ने उसकी मनोहरता और उपादेयता बढ़ाने में कोई कसर नहीं की है। हिन्दी के विद्वान और सुकवि सय्यद असीरमली की सम्मति । इसमें चोपक नहीं है, टीका सरल सुवोध हिन्दी में मूल के अनुसार सो गयी है । खींचा. तानी और स्वयम् बुद्धिप्रकाश करने का टीकाकार ने न कष्ट उठाया है, न पाठकों के लिये व्यर्थ की उल- झन छोड़ी है । शङ्खा-समाधान किया है, पर क्लिष्टकल्पना का नाम तक नहीं है। कथान्तरों को टिस्प- पियाँ भी लगी हैं। मूलार्थ के पश्चात अलंकार-रस-भाव और ध्वनि का स्पष्टीकरण कर मानो सोने में सुगन्ध भर दी है। अन्त में मानसपिङ्गल लगा दिया है, जो विद्यार्थियों के भी काम का है। गोस्वा. मीजी का जीवनचरित्र भी खोज के साथ लिखा गया है। साथ ही रंगीन चित्रों के लग जाने से प्रन्ध की शोमा दूनी हो गयी है। तात्पर्य यह कि टीकाकार ने पास्तव में इस टीका के लिखने में सराहनीय परिश्रम किया है। भारतमित्र द्वारा एक हिन्दी सेवी की सम्मति । यह टीका मैंने खूब ध्यान से पढ़ी है । टीका यहुत ही उपादेय हुई है। भावार्थ थोड़े शब्दों में दिया गया है, जिससे जिज्ञासा को पूर्ण निवृत्ति हो जाती है । घोपक का नाम नहीं, मूलपाठ प्राचीन प्रतियों के अनुसार यहुत कुछ शुद्ध है। जितनी विशेषताएँ टीका में होनी चाहिये वह सब इसमें विद्य. मान है। माधुरी के लत्यसेवक ने "टीका अच्छी हुई दबी ज़बान से यही कहा, पर आगे चलकर वे मिथ्याकल्पना की और न जाने क्यों झुक पड़े। आप लिखते हैं कि इस टीका के लिखने में टीकाकार का दावा है कि हमने कवि के उद्देशानुसार ही अर्थ करने की चेष्टा की है, परन्तु टीकाकार का यह दावा विचारणीय है। ठीक है, विचारिये और बतलाइये कि यह दावा ठीक है या नहीं। शायद आपने उद्देश्य कानर्थ कविकल्पना समझा रक्खा है, क्योंकि उद्देश्य की बात छोड़ एक ही साँस में कधि के उद्गारों के भावों की बात कहने लगते हैं और उद्देश्य को बात ही भूल जाते हैं। मूलपाठ के विषय में टीकाकार पर श्राधोप करना अन्याय है, क्योंकि जिन प्रतियों से पाठ संगह किया गया है टीका में सर्वत्र उसका उल्लेख किया गया है। अतः तोड़ मरोड़ की शिकायत व्यर्थ है। हिन्दी प्रेमियों ने इस टोका का उचित सम्मान किया है। इस प्रकार की अवहेलना करने से टीका की उपादेयता में कोई अन्तर नहीं आं सफता और न सत्यसेवकजी की सत्यसेषा का हिन्दी संसार को परिचय ही मिल सकता इसके अतिरिक्त-बहुत से विद्वानों की अनुकूल सम्मतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनको स्थानाभाव के कारण हम नहीं प्रकाश कर सके हैं। !