पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड। वाध्यार्थ से नारद का परम-हित, गर्व के अङ्कर को उखाड़ डालने की व्यञ्जना वाच्यविशेष व्यङ्ग है। चौ०-कुपथ माँग रुज ज्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अन्तरहित प्रभु अयऊ॥१॥ रोग से विकल हुआ रोगी कुपथ्य, माँगता है, हे योगी मुनि ! सुनिए, वैद्य उसको नहीं देता। इसी तरह मैं ने तुम्हारी भलाई ठानी है, ऐसा कह कर भगवान् अदृश्य हो गये ॥१॥ भगवान् का असल मतलब तो यह कहने का है कि मैं तुम्हें स्त्री के अधीन न होने दूंगा। पर ऐसा न कह कर कहते हैं कि-हे योगी मुनि ! कुपथ्य- माँगनेवाले रोगी को वैद्य उससे बचाता है, तुम्हारा हित उसी तरह मैं ने करने को ठाना है। कारण कह कर कार्य सूचित करना 'कारज निबन्धना अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार' है। माया बिबस भये मुनि मूढा । समुझी नहिँ हरि गिरा निगूढा ॥ गवने तुरत. तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयम्बर-भूमि बनाई ॥२॥ माया के अधीन हो कर मुनि ऐसे मूर्ख हो गये कि भगवान् की खुली हुई ( सीधी) बात को नहीं समझ सके । ऋषिराज तुरन्त ही वहाँ गये जहाँ स्वयम्बर-भूमि बनी है ॥२॥ निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरे । मोहि तजि आनहिँ बरिहिन भारे ॥३॥ बहुत सजधज कर मण्डली समेत अपने अपने आसन पर राजा लोग बैठे हैं । मुनि के मन में बड़ा आनन्द है, मेरा अनुपम रूप है, मुझे छोड़ कर राजकन्या दूसरे को भूल कर भी न बरेगी ॥३॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहु न पावा । नारद जानि सबहि सिर नावा ॥४॥ कृपानिधान हरि ने मुनि के कल्याण के लिए जो बुरा रूप दिया, वह कहा नहीं जाता। उस चरित्र को किसी ने न लख पाया, सभी ने नारद जान कर सिर नवाया ॥४॥ दो रहे तहाँ दुइ रुद्र गन, ते जाहिँ सब भेउ । विप्र बेष देखत फिरहि, परम कोतुकी तेउ ॥१३३॥ वहाँ दो रुद्र-गण थे। वे सब भेद जानते थे। वे भी बड़े खेलवाड़ी ब्राह्मण के वेश में (तमाशा) देखते फिरते थे ॥ १३३ ॥ चौ०-जेहि समाज बैठे मुनि जाई । हृदय :रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठे महेस गन दोऊ । बिप्र बेष गति लखइ न कोऊ ॥१॥ जिस समाज में नारद मुनि अपने रूप का हृदय में बहुत बड़ा धमण्ड कर जा बैठे। वहाँ दोनों शिवजी के गण ब्राह्मण के वेश में बैठे हैं, पर उनकी चाल कोई जानता नहीं ॥१॥ प