पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९७

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रामचरित-मानस। १४२ करहिँ कूटिं नारदहि सुनाई । नीकि दोन्हि हरि सुन्दरताई ॥ रोमिहि राजकुँअरि छवि देखी। इन्हहिँ बरिहि हरि जानि बिसेखी ॥२॥ नारदजी को सुना कर वे मसखरी करते हैं कि भगवान् ने अच्छी सुन्दरता इन्हें दी है। राजकुमारी छवि देख देख कर मोहित हो जायगी और इन्हीं को ख़ास हरि जान कर जयमाल पहनावेगी ॥ २॥ नीकि दोन्हि हरि सुन्दरताई इस पद में मुख्यार्थ बाध हो कर कुरूपता व्यजित होती है और 'हरि' शब्द अनेकार्थी है । इससे कपि-प्रकृति की ध्वनि प्रकट होना 'गृढव्य है। मुनिहि माह मन हाथ पराये । हँसहि सम्मु-गन अति सचु पाये ॥ जदपिसुनहिँ मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धिभ्रम सानी ॥३॥ मुनि का मन पराये हाथ, माह में फँसा देख शिव-दूत बहुत प्रसन्न हो कर ईसते हैं। यद्यपि मुनि ऊटपटाइ वाते सुनते हैं। पर उनको समझ नहीं पड़ता। उनकी बुद्धि भ्रम में सनी है (दूतो की व्यहोकि को सम्धी प्रशंसा समझ रहे हैं)॥३॥ काहु न लखा सो चरित बिसेखा । सो सरूप नृप कन्या देखा । मर्कट बदन भयङ्कर देही । देखत हृदय कोध भा तेही ॥४॥ इस विशेष चरित्र को और किसी ने नहीं लखा, राजकुमारी ने उस रूप को देखा। बन्दर का मुख और डरावना (काला) शरीर, देखते ही उसकेहृदय में क्रोध हुमा Man राजकन्या को क्रोध इसलिए हुआ कि बुरी सूरतवला महा-मूर्ख क्या विवाह को इच्छा आया है। यह व्यङ्गार्थ वाच्यार्थ के वरावर गुणीभूत व्यङ्ग है। दो-सखी सङ्ग लेइ कुँवरि तब, चलि जनु राज़मराल । देखत फिरइ महीप सघ, कर सरोज जयमाल ॥१३४॥ तब राजकन्या सखियों को साथ लिये आगे चलो, वह ऐसी मालूम होती है मानों राजहे- सिनी गमन करती हो । कर कमलों में जयमाल लिए सब राजाओं को देखती फिरती है ॥१३४॥ राजहंसिनी धीमी धीभी चाल बलती हां है 'उक्तविषया वस्तूमेक्षा अलंकार' है। चौल-जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि तेहिन बिलाकी भूली । पुनि पुनि मुनि उकसहि अकुलाही । देखि दसा हुर-गन मुसुकाहीं ॥१॥ जिस अोर नारदजी फूले बेठे थे, उस दिशा में उसने भूल कर भी नहीं देखा। मुनि बार बार ऊपर को उठते और घबराते हैं, उनकी हालत देख कर शिवगण सुस्कुराते हैं ॥१॥ मुनि के उपहास पर रुद्र-गों का हँसना अनुचित है। इसलिए यह 'हास्य रसामांस' हैं। .