रामचरित मानस । नारदजो वैकुण्ठ में हरि के लिए जा रहे थे, पर वे अकस्मात् वीच ही में मिल गये 'तृतीय सम अलंकार है । शाप दूंगा या कि प्राण दे दूंगा अथवा माऊँगा, या तो यह करूंगा या वह विकल्प अलंकार' है । 'मरिहउँ' शब्द श्लेषार्थी है। बोले मधुर बचन सुर-साँई । मुनि कहँ चले बिकल की नाई। सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया-प्रस न रहा मन बोधा-॥३॥ देवताओं के स्वामी मधुर वचन बोले-हे मुनि ! व्याकुल की तरह कहाँ चले-हो ? यह वात सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध हुआ, मायाधीन होने के कारण मनमें ज्ञान नहीं रह गया॥३॥ पर सम्पदा सकहु नहिँ देखी । तुम्हरे इरिषा कपट बिसेखी ॥ मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायेहु । सुरन्ह प्रेरि विष पान करायेहु ॥an नारद ने कहा-तुम दूसरे की सम्पत्ति देख नहीं सकते, तुम्हारे (मन में) डाह, छल बहुत है। समुद्र मथते समय शिव कोपागल बना दिया, देवताओं को भेज कर उन्हें विष पान कराया ॥५॥ दोष-असुर सुरा बिष सङ्करहि, आपु रमा मनि चारु । स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह, सदा कपट व्यवहारु ॥ १३६ ॥ दैत्यों को मदिरा, शङ्कर को विष और आप सुन्दर लक्ष्मी तथा मणि लिया अपना मतवन गाँठने में तुम्हारा धोखेबाजी का व्यवहार सदा टेढ़ा ही होता है ।।१३६॥ चौ०-परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सेोई ॥ भलेहि मन्द मन्देहि मल करहू । बिसमय हरषन हिय कछु धरहू ॥१॥ तुम्हारे सिर पर कोई है नहीं, इससे बड़े ही स्वच्छन्द होकर जो मन में सुहाता है वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला बनाने में खेद या हर्ष दृश्य में कुछ नहीं लाते ॥१॥ डहँकि डहँकि परचेउ सब काहू । अति असङ्क मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहिँ न बाधा । अब लगि तुम्हहिँ न काहू साधा ॥२॥ सब को धोखा दे दे कर लहगर हो गये हो; अत्यन्त निर्भय मन से (छलने में) सदा उत्कण्ठित रहते हो । तुम्हें कर्मों के शुभाशुभ की पीड़ा नहीं होती और न अक्तक तुमको किसी ने ठोक ही किया है ॥२॥ भले भवन अब बायन दीन्हा । पाबहुगे फल आपन कीन्हा । बजेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु साप मम एहा ॥३॥ अब भले घर वायन दिया है, अपने किये का फल पाओगे । जौन सी देह धर कर तुमने मुझे ठगा है, मेरा यही शाप है कि तुम वही शरीर धारण करो ॥३||