पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२०५

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रामचरित मानस । दो-द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि, जपहिँ सहित अनुराग । बासुदेव-पद-पडसह, दम्पति मन अति लाग ॥१३॥ फिर राजा-रानी का मन वासुदेव भगवान के चरण-कमलों में अच्छी तरह लग गया। वे प्रेम के साथ वारह अक्षरवाला मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) जपने लगे ॥१४॥ चौ०-करहिँ अहार साक फल कन्दा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लोगे। बारि-अधार मूल फल त्यागे ॥१॥ साग, फल और कन्द का आहार करके सच्चिदानन्द ब्रह्म का स्मरण करते हैं। फिर भगवान के लिये तपस्या करने लगे, मूलफल त्याग कर जल के सहारे रहने लगे ॥१॥ उर अभिलाष निरन्तर होई । देखिय नयन परम प्रभु सेाई ॥ अगुन अखंड अनन्त अनादी । जेहि चिन्तहिँ परमारथबादी । ॥२॥ हदय में निरन्तर अभिलाषा होती है कि उन परमात्मा नारायण को नेत्रों से देस। जो निगुण, अविछिन्न, अनन्त और अनादि हैं, जिनका चिन्तन तत्वज्ञान के वक्ता (वेदान्ती) करते हैं ॥२॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा । चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ॥ सम्भु बिरचि बिष्नु भगवाना । उपजहिँ जासु अंस तँ नाना ॥३॥ जिनको वेद-इति नहीं, अन्त नहीं कहते हैं, जो चैतन्य अानन्द-मय, उपाधिरहित और अनुपमेय हैं । जिन भगवान् के अंश से असंख्यों शिव ब्रह्मा और विष्णु उत्पन्न होते हैं ।।३।। ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीला तनु गहई । जौँ यह बचन सत्य खुति भाषा । तौ हमार पूजिहि अभिलाषा ugu ऐसे स्वामी भी सेवक के वश में रहते हैं, वे भक्तों के कारण खेलं से शरीर ग्रहण करते हैं। यदि यह वचन वेद सत्य कहता है तो हमारी अभिलाषा पूरी होगी ॥४॥ दो०-एहि बिधि बीते बरष षट,--सहस बारि आहार । सम्बत सप्त-सहस्त्र पुनि, रहे समीर अधार ॥१४॥ इस प्रकार छः हजार वर्ष जलपान कर पीते, फिर सात हजार वर्ष पर्यन्त वायु के आधार पर रहे ॥१४॥ चौ०-बरष सहस-दस त्यागेउ सोऊ । ठोड़े रहे एक पग दोऊ ॥ विधि हरि हर तप देखि अपारा । मनु समीप आये बहु बारा ॥१॥ दस हज़ार वर्ष उसको (पवन का आधार) भी स्याग दिया, राजा-रानी दोनों एक पाँव से खड़े रहे । उनका अपार तप देख कर,बहुत बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश मनु के पास आये ॥१॥