पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२०६

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प्रथम सोपान, बालकाण्डे । १५१ माँगहु बर बहु भाँति लोभाये । परम धीर नहिँ' चलहिँ चलाये ॥ अस्थि--मात्र होइ रहेउ सरीरा । तदपि भनाग मनहिँ नहिँ पीरा ॥२॥ त्रिदेवों ने बहुत तरह लुभाया कि-राजन् ! वर माँगो, पर वे बड़े ही धीर है ( अपने सिद्धान्त से किसी के) विचलाये नहीं विचलते हैं। उनका शरीर हड्डी मात्र हो रहा है, तो भी मन में ज़रा भी दुःख नहीं है ॥२॥ प्रभु सर्बज्ञ दास निज जानी । गति अनन्य सापस नृप-रानी ॥ माँगु माँगु बर भइ नभ बाँनी । परम गंभीर कृपामृत सानी ॥ ३ ॥ सर्वज्ञ प्रभु तपस्वी राजा-रानी को अनन्यगतिवाला अपना दास जानकर (प्रसन्न दुए)।अतिशय गम्भीर कृपा रूपी अमृत से मिली आकाश-वाणी हुई कि वर माँगो ॥३॥ मृतक-- जिआवनि गिरा सुहाई । सवन-- रन्ध्र होइ उर जब आई ॥४॥ हृष्ट-पुष्ट तन भये सुहाये । मानहुँ अबहिँ भवन तैं आये ॥४॥ मुर्दे को जिलानेवाली सुन्दर वाणी जब कान के छेदों से होकर हृदय में आई, तब वे शरीर से सुन्दर दृष्टपुष्ट (मोटे ताजे) हो गये, ऐसे मालूम होते है मानों अभी घर से प्राय है ॥४॥ दो-सवन सुधा-सम बचन सुनि, पुलक प्रफुल्लित गात । बीले मनु करि दंडवत, प्रेम न हृदय समात ॥१४॥ कानों के लिए अमृत के समान वचन सुन कर उनका शरीर प्रेम से पुलकायमान हो गया। राजा मनु दण्डवत कर बोले, प्रीति हदय में श्रमाती नहीं है ॥१५॥ राजारानी का प्रेम से रोमाञ्चित होना; दण्डवत करना सात्विक अनुसाव है । यहाँ ईश्वर विषयक रति स्थायी भाव है। चौ०--सुनु सेवक सुरतरु-सुरधेनू । विधि-हरि-हर-बन्दित पद-रेनू । सेवत सुलभ सकल सुखदायक । प्रनत पाल सचराचर नायक ॥१॥ स्वायम्भुवमनु बोले-हे सेवकों के कल्पवृक्ष और कामधेनु ! सुनिये, आपके चरणरज की बन्दना ब्रह्मा, विष्णु और महेश करते हैं । हे शरणागत रक्षक ! आप चराचर के स्वामी संपूर्ण सुखों के देनेवाले और सेवा करते ही सहज में प्रसन्न होनेवाले हैं ॥१॥ जौ अनाथ- हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराही ॥२॥ हे अनाथों के कल्याणकर्चा ! यदि मुझ पर आपका स्नेह है तो प्रसन्न होकर यह वरदान 'दीजिए जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिसके लिए मुनि लोग यत करते हैं ॥२॥ 1