पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२०९

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। रामचरित मानस । १५४ दो-बोले कृपा-निधान पुनि, अति प्रसन्न माहि जानि । माँगहु बर जोइ भाव मन, महादानि अनुमानि ॥ १८ ॥ फिर कृपानिधान प्रभु बोले-मुझे अत्यन्त प्रसन्न जान कर और महान दानी विचार कर तुम्हारे मन में जो भावे, वही वर माँगो ॥ १४ ॥ दानोत्लाह की परिपूर्णता 'दानवीर रस' है। चौ०–सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरज बोले मृदु बानी॥ नाथ देखि पद-कमल तुम्हारे । अंव पूरे सब काम हमारे ॥१॥ प्रभु के वचन सुन दोनों हाथ जोड़ कर धीरज धारण कर के राजा कोमल वाणी से बोले। हे नाथ ! आप के चरण-कमलों को देख कर अब हमारी सब कामनाएं पूरी हो गई ॥१॥ एक लालसा बड़ि उर माहीं । सुगम अगम कहि जाति से नाहीं॥ तुम्हहिं देत अति सुगम गोसाँई । अगम लाग मेाहि निज कृपिनाई ॥२॥ एक बड़ी लालसा मन में है, वह कही नहीं जाती है, क्योंकि सुगम भी है और दुर्गम भो। हे स्वामिन् ! आप को देने में बड़ी आसान हैं, पर मुझे अपनी क्षुद्रता के कारण कठिन जान पड़ती है ॥२॥ जथा दरिद्र कल्पतरु पाई । बहु सम्पत्ति माँगत सकुचाई ॥ तासु प्रभाव जान नहिँ साई । तथा हृदय मम संसय होई ॥३ जिस प्रकार दरिद्र कल्पवृक्ष को पा कर बहुत सम्पत्ति माँगने में लजाता है । वह उसकी महिमा (माँगत अभिमत पाव फल, राव-रकमल-पोच) को न जानता हो, उसी तरह मेरे मन में सन्देह होता है ॥३॥ सो तुम्ह जानहु अन्तरजामी । पुरवहु मार मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ माँगु नप माही । मेरे नहिँ अदेय कछु ताही ॥१॥ हे स्वामिन् ! आप वह जानते हैं, क्योंकि अन्तर्यामी हैं, मेरे मनोरथ को पूरा कीजिए । भगवान वोले-हे राजन् ! सङ्कोच छोड़ कर मुझ से माँगो, मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है जो तुम्हें न देने लायक हो ॥ ४॥ यहाँ 'माही' शब्द श्लेपार्थी है, ऊपर कहे अर्थ के अतिरिक्त यह अर्थ भी निकलता है. कि-राजन् ! तुम मुझे माँगना चाहते हो तो संकोच छोड़ कर मुझे माँगी । यह अर्थ भी कवि इच्छित है। इसलिए श्लेष अर्थालंकार है। दो०-दानि-सिरोमनि कृपानिधि, नाथ कहउँ सतभाउ । चाहउँ तुम्हहिँ समान सुत, प्रभु सन कवन दुराउ ॥१४॥ मनुजी बोले-हे कृपानिधान दानियों में शिरोमणि नाथ ! सत्य सत्य कहता हूँस्थामी से कौनसा छिपाया है, मैं श्राप ही के समान पुन चाहता हूँ ॥१४६॥